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घाट

(१)

सूरज ने अब अपनी किरणों को समेटना आरंभ किया। अंबर लालिमा युक्त है। गंगा के साफ जल में जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह प्रकृति की चित्रकला का छोटा सा उदाहरण मात्र है। एक चित्रकला और बन रही है। माधव घाट की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे प्रकृति के चित्र की नकल को अपनी पुस्तिका में छाप उतार रहा है। एक बार आंखों को ऊपर उठाकर ताके, फिर कागज पर कुछ कुरोदे फिर वही चक्र। बहुत सुंदर तो नहीं, फिर भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही, वक्त गुजारने के लिए पर्याप्त है। माधव थोड़ा तेज होता है। चित्र पूरा हो सके उससे पहले ही संध्या ढल गई। अब कल फिर आने का बहाना मिल गया है। माधव रात भर भी यहां बैठा रहे तो भी कोई पूछने वाला ना है। कॉलेज के हॉस्टल में उसको भला कौन पूछे? खासकर जब परीक्षा ना हो और ना ही कोई और प्रसंग।

दो वर्षों में माधव का एकाकीपन बढ़ता ही गया। दिनों दिन वह स्वयं को एकांत के घोर अंधकार में और भीतर पाता है। परंतु यह कोई अपवाद नहीं है। संसार की रीति रही है -'औड वन आउट' । उसी रीति का पालन हो रहा था। माधव दूसरों से अलग था। हर कोई होता है, पर इतना नहीं। उसके विचार हर तरफ स्वयं को अकेले पाते। माधव का स्वभाव थोड़ा सरल था और भाषा मीठी। उससे ना कहते नहीं बनता था। स्वाभाविक ही है जब किसी को उससे कोई काम होता तो माधव आसान मछली साबित होता। क्या केवल इसीलिए कि कोई आपकी बोली ना बोलता हो, आपके जैसे खेल ना खेलता हो अथवा वो सब नहीं करता हो जो अन्य सभी के लिए सामान्य था, उसका एक प्रकार का बहिष्कार किया जाए? प्रतिदिन की बहुत छोटी-छोटी घटनाओं में उसे यह अहसास रह-रहकर होता। चाहे वह क्लास में जाना हो , कहां बैठना, कहां जाना, किस विषय में चर्चा करना, कैसी प्रतिक्रिया देना- सभी बहुत छोटी बातें हैं जिनका एक सामान्य के जीवन में कोई महत्व नहीं है। पर जैसा कहा गया माधव अलग था। तो उसे अलग ही रहना चाहिए क्या कोई जब किसी फल वाले से सेब मांगता है तो उसे दस सेबों में एग्हराहवां केला थोड़ी ही दिया जाता है। सही बात है ना? माधव यूं ही मन में तर्क वितर्क किया करे। कभी पार्क में पेड़ के सहारे टेक लगाए इंतजार करते-करते (किसका?) तो कभी बाथरूम में ही! अंततः निष्कर्ष यह निकलता कि -तेरी गलती है। अब वह निश्चय करता कि कल से वह बदलाव लाएगा और फिर सब उसे स्वीकार लेंगे। अभी कल की ही बात है। निश्चय पर अमल करने का एक और प्रयास किया गया। क्लास खत्म होने पर वह चार-पांच के पीछे लग गया और अवसर ताकता रहा कि कहां वह भी उनकी चर्चाओं में आ सके। काफी देर तक वे यूं ही इंतजार करता रहा। सब उसे नजरंदाज करते रहे। कब तक आत्म स्वाभिमान की क्रूर हत्या कर वह अपने आप के अंदर के बदलाव का संकेत करता रहता। उसे अपमानित महसूस होता। लगता की क्यों वह अनामंत्रित ही खड़ा है। अब वह और ऐसा नहीं करेगा।

आज उसने मणिकर्णिका घाट का सहारा लिया। विचित्र! मणिकर्णिका घाट में केवल वही अकेला नहीं है अनेकों अकेले शव आते हैं। पीछे भले ही बहुत से कंधे हो, परंतु जाएगा तो वह यहां से अकेला ही। सभी बंधनों को तोड़, सांसो की डोर को छोड़, निकल पड़ेगा अकेले ही अपनी अंतिम यात्रा पर। संसार तो यही समझ रखता है कि मणिकर्णिका मोक्ष का द्वार है- फिर वापस आना ना होगा। मोक्ष का सिद्धांत ही अद्वैतवाद का है, एकात्म का है। मणिकर्णिका घाट का प्राचीन इतिहास भी मृत्यु के एकात्म सत्य का साक्षी है। प्रजापति दक्ष यज्ञ विध्वंस के बाद जब श्री नारायण ने महादेव को शांत करने हेतु मां सती के 51 भाग कर दिए तो उनके कर्ण (कान) की मणि यही गिर गई। अतः नाम पड़ा- मणिकर्णिका।

माधव सारा सामान चिताओं की आखिरी लपटों की रोशनी में उठा ही रहा था कि पायल के घुंघरूओं की आवाज ने उसका ध्यानाकर्षण किया। हल्के से प्रकाश में उसने एक अस्पष्ट छवि देखी। हिरण सी चमकीली आंखों ने मानो माधव के एकांत रूपी तिमिर में किरण का उजाला कर दिया हो। माधव आगे कुछ कहता अथवा करता, छवि धूमिल होती हुई विलुप्त हो गई। कौन थी वह? इतने अंधेरे में श्मशान में क्यों है?

(२)

एक अजनबी, हसीना से, यूँ मुलाकात, हो गई.....फिर क्या हुआ, ये ना पूछो, कुछ ऐसी बात, हो गई.....एक अजनबी ......

रिक्शे में जाते हुए माधव को वह छवि रह-रहकर आंखों के सामने आती है। रात अगली शाम के इंतजार में जैसे तैसे गुजरी। माधव अगली शाम फिर वहीं है। ड्राइंग बुक खोली तो सही पर आंखें किसी और ही दृश्य को चित्रित करने को अधीर हैं। जल्द ही नेत्रों को मनोवांछित दर्शन हुए। इस बार साफ स्पष्ट और सुंदर! मन और बुद्धि युति कर उपमाएं तलाश रही हैं। भाव-भंगिमा के इतर नेत्रों को और कुछ नहीं दिख रहा। यह थी राधिका। घाट की डोमिन दुर्गा देवी की बेटी। यहीं पीछे की गली में अपनी मां और एक बहन के साथ रहती है। दुर्गा देवी के पति इसी घाट पर चिताओं को जलाने का काम करते थे। बड़ा साहसिक काम है। वज्र का हृदय चाहिए इस काम के लिए। दिनभर लाशों के बीच रहना, ना जाने कितनों को कंधा दें उतारना, चिता सजाना, सबको सही से जलाने का काम भी इनका ही होता। कई बार तो हाथों से अध-जले अंगों को ठीक करना पड़ता। यह सब काम कोई चेत अवस्था में कैसे करें? अतः वह हमेशा शराब के नशे में रहता। उनके लिए यह आम बात हो गई थी। पर शरीर यह ज्यादा झेल ना सका और आज 12 साल हुए उनको गुजरे।

घाट के चारों तरफ लकड़ियों का ढेर लगा है। अंतिम क्रिया का सामान बेचने वाली कईयों दुकानें कतार से सड़क के दोनों किनारे लगी हैं। शवों का आवागमन तो पूछो मत, रुकता ही नहीं! मोक्ष की नगरी में अंतिम क्रिया करने की इच्छा भला किसे ना हो? कौन पुनः अब इस धरातल पर आना चाहे? नश्वरता ही सारे दुखों का मूल ज्ञात होता है। दुर्गा देवी गंभीर मनोभाव के साथ बाईं ओर दो शवों को देख रही है। कभी किसी में घी डाल लपटें भड़काती तो दूसरे को कोदकर उसका कपाल फूड़ती है। यह करते-करते उन्हें 12 साल हो गए। पति के बाद परिवार पालने के लिए और कोई आसरा भी नहीं था। समाज अछूत मान कहीं और काम ना देता। इस काम को भी करने पर शुरू में बहुत विवाद हुआ। मदद करने चाहे कोई ना आए, अवरोध उत्पन्न करने बहुत से आए। दुर्गा देवी बेटी की खातिर सब नजरअंदाज करती गई। बेटी इसीलिए कि तब तक एक ही थी। एक दिन उन्हें इसी घाट पर एक बच्ची दिखी 10-12 साल की अकेली। पता चला अनाथ थी तो गोद ले लिया। अक्सर जिनके दान देने के दिन नहीं होते उनके दिल जरूर होते हैं। राधिका नाम दिया। यह घाट दुर्गा देवी के एक सरल, सामान्य एवं घरेलू महिला से साहसिक, स्वतंत्र और जिम्मेदार होने के परिवर्तन का निरंतर गवाह रहा है।

माधव बहुत देर तक यूं ही तिरछी निगाहों से राधिका को निहारता रहा। अब यह उसकी रोज की दिनचर्या बन गई। वह इस आकर्षण का कारण नहीं समझ रहा था परंतु ज्यों शांत समुद्र में फंसे जहाज को हवा का आश्रय मिला हो वैसे ही माधव के मनोभाव थे। कुछ-एक सप्ताह तक यही चलता रहा। माधव कुछ न कहता अथवा पास भी जाने से कतराता। एक दिन रोज की तरह वह यूं ही बैठा था कि उसके पैरों के पास एक नारियल लुढ़कता हुआ आया। राधिका पीछे-पीछे ही थी। माधव ने नारियल उठा कर ऊपर देखा तो राधिका हाथ बढ़ाएं हुए खड़ी है। उसने नारियल दे दिया। राधिका शुक्रिया कहती हुई चल दी। वह भी रोज माधव को देखती थी। श्मशान घाट कोई पर्यटन स्थल तो न था उसे बड़ा अचरज होता। कई बार सोचा कि पूछे पर केवल सोचा ही। आज वह रहस्य जानेगी। कुछ देर बाद वापस वह माधव के पास आई। माधव सकुचा गया और नजरें फेर ली। राधिका ने अपने परिचय से आरंभ किया।

-तुम न रोकते तो वो गिर जाता। वैसे तुम यहां रोज क्या करते हो? मैं तुम्हें पिछले हफ्ते भर से देखती हूं। कौन हो तुम?

-वह तो यूं ही। मेरा नाम माधव है। मैं यही का कॉलेज स्टूडेंट हूं। शाम को कॉलेज में कोई काम नहीं होता तो यही आ जाता हूं।

-क्यों? कॉलेज के बाकी छात्र तो बड़े व्यस्त होते हैं शाम को। कोई माॅल जा रहा है, कोई विश्वनाथ घूमता है, कई जगह हैं समय व्यतीत करने को। आश्चर्य है तुम मसान पर आते हो!

-तुम भी तो यही रहती हो उसमें क्या?

-मेरा तो घर ही यही है। वह देखो वह जो वहां चिताओं को जलवा रही हैं, मां है। हम यहीं रहते हैं पीछे। दिन में तो मैं भी कॉलेज जाती हूं पर शाम में मां के साथ यही समय गुजरता है। मेरा तो कारण है, तुम बताओ।

-अच्छा बैठो! बात लंबी है।

आज माधव के पास वर्षों बाद कोई उससे सामने से बात करने का इच्छुक है। वह फूले न समा रहा है। खुशी का साधन कितना छोटा हो सकता है! केवल कुछ पल अपने मन की बातों को कह देना और ऐसा कोई हो जो उसे मात्र सुनने के लिए नहीं बल्कि समझने के लिए सुने, प्रसन्नता दे सकता है। कितना सरल है संसार में प्रसन्न होना! क्या इन बीते दो वर्षों में किसी को इतना भी समय नहीं था कि वह माधव के साथ चार पल बात कर सके? शायद नहीं। माधव एक ऐसे अनजान शख्स को आज वह सब कुछ कह सुना रहा है जो वह हमेशा से अपने दोस्तों को कहना चाहता था। धीरे-धीरे माधव और राधिका सहज हो लिए। अपरिचित से परिचित होने के प्रसंग का भी साक्षी है यह घाट।

(३)

माधव और राधिका में मित्रता हो गई। माधव के अकेलेपन के कारण बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य में यह संबंध सकारात्मक मोड़ साबित हुआ। राधिका को भी उसकी जाति के चश्मे से नहीं देखा गया। राधिका को राधिका जान समझा गया। दोनों के परस्पर संबंध में दोनों के ही जीवन के मुख्य कांटे का काट किया। इन्हीं समानताओं के कारण मित्रता गहराती गई। दुर्गा देवी से छुप-छुपा कर वें अब कभी विश्वनाथ की तरफ चल देते, तो कभी गंगा विहार पर। दोनों की एक दूसरे का साथ भाने लगा। मौके तलाश किए जाते। बातें घंटों चलती। समय का पता ही नहीं चला और यूं ही 6 महीने से ऊपर हो गया। माधव और राधिका दोनों समझ चुके थे कि यह आकर्षण मात्र नहीं बल्कि प्रेम का बीज है। निश्चल, निस्वार्थ, एकात्म प्रेम! परंतु कहने और स्वयं से भी स्वीकारने से वे कतरा रहे थे। दोनों के पास इसे नकारने की लगभग एक ही वजह थी-परिवार। माधव फिर भी कल सब स्पष्ट कह सुनाएगा या कहा जाए राधिका को कल को प्रपोज करने वाला है। बहुत सी तैयारियां की थी। उसके लिए गिफ्ट और फिर घूमना फिरने, फिल्म देखने जाना, जो भी सामान्यतः होता है। रात कल के इंतजार में कट रही है। उसका क्या जवाब होगा? क्या कहेगी? परिवार को पता चलेगा फिर? आदि। खैर वह अगली शाम पूरे विश्वास के साथ निकला। घाट ही जाएगा। कभी सुना है मसान पर प्रपोजल!

घाट रोज जैसा ही था। चिताएं जल रही थी। वही भीड़, वही गंगा का पानी, वही चंदन की महक, ढलता सूरज जिसमें उसने पहली बार राधिका को देखा था। बस बदला था तो वह था माधव के मुख का रंग। अब वह उदास अकेला और निस्सहाय नहीं था। जिसके साथ वह हंस बोल सके ऐसा कोई था। वह अब घाट पर समय काटने नहीं, साथ बिताने जाता था। उसने नजरें दौड़ा कर देखा। राधिका कहीं दिखी नहीं, न दुर्गा देवी दिखती है। थोड़ा प्रतीक्षा करने के बाद भी वह नहीं आई।फोन मिलाया, कोई जवाब नहीं‌। कुंठित हो उसने एक दुकान पर पूछा।

-अरे भाई! दुर्गा देवी और उनकी बेटी नहीं दिखती। पता है कहां होगी?

-कौन वो डोमिन और उसकी बेटी क्या नाम था उसका...हां राधिका ! वह देखो आखरी चिता जो जल रही है उसी की है। बेचारी लड़की! कल रात ही घाट पर पैर फिसल गया और सीधे लुढकती हुई गंगा समाधि हो गई। बड़ी अजब लीला है मणिकर्णिका की। विश्वनाथ उसकी आत्मा को शांति दे!


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