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काकी

" मृत्यु जीवन का अंत करती है, संबंधों का नहीं, उनसे जुड़ी संवेदनाओं का नहीं। "

इसी भाव पर आधारित सियारामशरण गुप्त जी की एक कहानी है - काकी।


कहानी एक छोटे बालक श्यामू के अपनी मां से वियोग के दुख पर आधारित है। जैसे बारिश के दो-तीन दिन पश्चात माटी की सतह तो सूख जाती है परंतु उसकी आद्रता कई दिनों तक बनी रहती है , उसी तरह समय ने श्यामू की आंखों से मातृवियोग के अश्रु तो सुखा दिए थे , परंतु भीतर बस चुके शोक को ना हिला सका। एक दिन आसमान में उड़ रहे पतंगो को देख उसका मन खिल उठा। बल्यकाल की नादानी एवं अज्ञानता ने अपनी मां को वापिस पास पाने की इच्छा को पूर्ण करने हेतु एक बड़ी ही विचित्र युक्ति प्रस्तुत की। श्यामू की मां को पतंग द्वारा वापस राम के यहां से वापिस लाया जा सकता था। परंतु पतंग पर नाम होना चाहिए - जिससे कि श्यामू की मां पतंग पहचान सके और रस्सी मोटी होनी चाहिए ताकि वें नीचे उतरते समय गिर ना जाए। इन आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए जो पैसे लगते वह श्यामू ने अपने पिता की जेब से निकाल लिए। साथ ही एक समवयस्क मित्र भोला को भी साथ कर लिया। इधर सारी तैयारी जब पूर्ण हो गई थी तब अकस्मात रंग में भंग डालते श्यामू के पिताजी, विश्वेश्वर प्रकट हो गए एवं जेब से गायब पैसों की पूछताछ करने लगे। एक ही डांट में भोला ने सब उगल दिया। क्रोध में आपा खोकर आधी बात पर ही विश्वेश्वर ने पहले श्यामू को दो थप्पड़ जड़ दिए और पतंग फाड़ दी। अंततः पास में पड़ी रस्सियो पर जब उनकी नजर पड़ी तब पूछे- "यह रस्सियाँ किसने मंगाई?" भोला ने उत्तर दिया- "श्यामू भैया ने मंगाई थी , कहा पतंग ऊपर भेज कर काकी को राम के यहां से वापस लाएंगे"। हतस्ताब्ध होकर विश्वेश्वर ने जब नीचे पड़ी उस फटी पतंग को पलट कर देखा, उस पर लिखा था - काकी।



इस कहानी का कथाचित्रण तो मूल रूप से एक बालक के मनोविज्ञान को दर्शाने के लिए हुआ था। परंतु मेरे अनुसार इस कहानी का सार उसके पात्रों की दुखयात्रा में बसी है। श्यामू एवं उसके उसके पिता विश्वेश्वर का दुःख समान था, परंतु एकत्र होकर कोई किसी का दुख बाँट न सका। वियोग की अग्नि ने विश्वेश्वर को इस प्रकार अन्यमनस्क कर दिया था कि वे अपने एकमात्र पुत्र के अकेलेपन को ना भाँप पाए। उसके अंदर पल रहे शोक को न देख सके। दुख, वियोग जीवन का सत्य है परंतु हम में से कोई इस सत्य को मनाना नहीं चाहता। परंतु सत्य अटल होता है ,अभेद्य होता है। विश्वेश्वर ने अगर अपने दुख से बाहर निकल कर देखा होता तो उसे ज्ञात होता कि उसकी पत्नी पूर्ण रूप से नहीं गई है, उनका एक अंश अभी भी उपस्थित है - श्यामू।

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