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ख्यालों का शून्य

"ख्यालों में बीत रहा हर लम्हा तेरा था l

असलियत भी तेरी थी, ख़्याल भी तेरा था ll" 

जब भी मैं इस सल्वाडोर डाली कृति को देखता हूं तो मुझे समय और विचार का ख्याल आता हैं। विचार जो जीवन की अनदेखी गुफाओं में गहरे पैदा होते हैं। विचार जो समय बीतने के साथ बदलते हैं।

इस चित्र को देखते ही मेरे मस्तिष्क में संभवतः असामान्य रक्त प्रवाह के बीच कई ख्यालों ने अन्तर्मन को चीरते हुए जन्म लिया l परंतु अगर उनके सार को टटोला जाए तो संदेश यही मिलता है कि मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं और व्यथाओ को जन्म देने वाले विचारों के शून्य को यहा खोजा जा रहा है l आखिर विचार हमे क्यो आते है? मानवीय मष्तिष्क इतना अनोखा कैसे है? वह उन भावनाओं को कैसे समझता है जिन्हे इस धारा में जीवन यापन करने वाला कोई और जीव नहीं समझ पाता? इन्ही ख्यालों के मायाजाल को मैं इस लेख में टटोलूगा l

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः

सर्वे सन्तु निरामयाः l

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा- कश्चिद्दुः- खभाग्भवेत्- ll

लगभग एक महाकाल प्राचीन इस श्लोक में सर्वत्र विश्व के सुख शांति की कामना की गयी l परंतु आज लगभग हज़ार वर्षो पश्चात संपूर्ण भारतीय महाद्वीप में यह शांति के परम संदेश के रूप में प्रयोग किया जाता है ।यह देवीय ज्ञान हमे वेदो के रूप में प्राप्त  हुआ l ज्ञान के प्रवाह  का यह एक उत्तम उदाहरण है जिससे यह भी कहा जा सकता है कि मानव के अन्तर्मन में ख्यालों का बीच बोने में ज्ञान के प्रवाह का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है l  कभी मौखिक,  कभी लिखित   या  कभी आपके संस्कारों एवं आनुवांशिक कोशिकाओं में  अंकित ज्ञान के प्रवाह ने मानवता के ख्यालों को एक समरूप दिशा दी है l

एक और वजह है परिवर्तन l सन् 1859 एक अंग्रेज़ी विज्ञानिक डार्विन ने विकास का सिद्धांत दुनिया के सामने रखा l मूल रूप से इस सिद्धांत के अनुसार बदलते समय एवं वातावरण के अनुसार हर जीव अपने आप को बदलता है ताकि उसकी प्रजाति का यापन चलता रहे l मानवीय प्रभुत्व को बनाए रखने के लिये भी विचारों के विकास की आवश्यकता होती है क्योंकि यह वही गुण है जो हमें बाकी सभी जीवों से भिन्न बनाता है l

इस परिवर्तन का एक उदाहरण भारतीय वर्ण व्यवस्था के प्रतिकार से लिया जा सकता है l कभी संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को वर्णों में बाटने वाले हम लोगो ने कुछ समय बाद उसका बहिष्कार किया l सूर्य कवि दिनकर इस पर के‍हते है कि -

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,

दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।

क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,

सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। 

ख्याल का आलम इन सब के अलावा कभी संघर्ष, कभी आंदोलन, कभी सहित्य, कभी सांसारिक समस्याओं, कभी राजनीतिक परिवर्तन, कभी समाजिक वेदनाओं, कभी शिक्षा आदि के वेग से परिवर्तित होता रहता है l इसलिए इसका मूल खोजना सरल नहीं है l

कभी सोचा है आपने की हड्डियों के असामान्य रूप से बनाय गए अद्भुत ढांचे के बीच आपकी कोशिकाओं के प्रवाह के समक्ष सम्राट सा विराजमान आपका मस्तिष्क कैसे वह अप्रतिम करिश्मे कर जाता है जिनकी कल्पना उससे पहले इस धरा का कोई प्राणी नहीं कर सकता था l सोचना कठिन है परंतु यही इसकी खूबसूरती है कि प्रकृतिक परिवर्तनों की कोई ठोस वजह होना आवश्यक नहीं है l 

तो ध्याय यही है कि ख्याल परिवर्तित होते है परंतु लेकिन उनके मूल सिद्धांत कभी नहीं बदलते l आपके मस्तिष्क का शून्य जानना आवश्यक नहीं है परंतु वह जिन ख्यालों को काबू करता है उसके शून्य को तराशना चाहिए l उदय दादा का शेर है कि 

"सब फैसले होते नहीं सिक्के उछाल के 

ये दिल के मामले है ज़रा देख भाल के "

अंत में यही लिखना सही है कि ख़्याल तो आते रहेगे ये मानवता का नियम है और परिवर्तन भी आता रहेगा यह संसार का नियम है l

सितारों को आँखो में मेहफूज़ रखना 

आगे रात ही रात होगी l

मुसाफ़िर है हम भी, मुसाफिर हो तुम भी 

फिर किसी मोड़ पे मुलाकात होगी ll


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