आनंद और मैं
- Mayank Kumar
- Jul 31, 2023
- 11 min read
नयी किताबों में एक खुशबू होती है, महसूस की है कभी? उसका बयां करना मुश्किल है , शब्द नहीं बने, अल्हड सी है वो खुशबू क्या बोलू उसके बारे में l बिल्कुल वैसी है जैसे बारिश के बाद सोंधी गिली मिट्टी, जैसे मंदिर में बजती जरस, जैसे वन में दौड़ता मृग, क्या बताऊँ, क्या बोलू l अच्छा एक खुशबू ऐसी बताता हू जो आपके आभास क्षेत्र के दायरे में हो l आपको पता है फ़िल्मों से भी खुशबू आती है, नहीं पता, चलिए बताता हू l
मनुष्य बड़ा विचित्र प्राणी है l जीवन मरण के चक्र में फसा एक निरा सिपाही, जिसे इस बात का कोई बोध नहीं की रोज़ की इस दैनिक कशमकश का मकसद क्या है l हम रोज़ जीते है रोज़ मरते है l सुबह प्राची की पहली किरण एक नए जीवन की उम्मीद समेटे आती है, पर दिन भर के भाग दौड़ और जिन्दा रहने के इस दुभर संघर्ष में ये सारी उम्मीद खर्च हो जाती है l शाम को ढलता सूरज अपनी पीली फीकी धूप में सनी कुछ आखिरी उम्मीद के कतरो को लिये ढ़ल जाता है l बोझिल कंधे जब रात को बिस्तर पर जाते है तब न जीने का उदेश्य बचता है न जिंदा रहने की उम्मीद l शरीर तो रहता है मगर मन और आत्मा दोनों भीतर घुट के मर जाती है l यह प्रक्रिया है रोज़ जीने की, रोज़ मरने की l
ज़िंदगी का निशान हैं हम लोग
ऐ ज़मीन आसमान हैं हम लोग
रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं
किस क़दर सख़्त-जान हैं हम लोग
- मुश्ताक नकवी
हम सबका जीवन एक बहती नदी है, दुख और सुख उसके रास्ते के काठ और पाषाण है l नदी बहती रहती है काठ और पाषाण आते रहते है l अंजुरी में सिमटी अनगिनत आकांक्षाएँ उसी नदी के रास्ते अपना पुर ढूंढती है l मेरा जीवन भी कोई अलग नहीं l बारह तेरह साल की उम्र रही होगी l यह वो समय था जब आमतौर पर बच्चे अपनी मानसिक उन्मुक्ति के उत्कर्ष पर होते है l पर मेरा मामला अलग था l विद्यालय की दीवार काटने को दौड़ती थी l घर पर भी कड़क वातावरण होने से ज़्यादा बातचीत नहीं हो पाती थी l सो मैंने फ़िल्मों और किताबों को अपना दोस्त बनाया l
यही से मुझे फ़िल्में देखने का शौक लगा l उन्हें इकट्ठा करना और पिताजी से छुप कर देखना मुश्किल काम तो था पर मैं जुगाड़ कर लेता था l इसी क्रम में मेरा राबता कुछ ऐसी फ़िल्मों से हुआ जो जीवन बदलने की ताकत रखती थी l पर एक ऐसी फिल्म मिली जो जीवन ही बन गई l इसी फिल्म का नाम था आनंद l
आनंद की सलाह मुझे मेरे दादाजी से मिली l मैंने इस फिल्म को पहली बार उन्हीं के साथ देखा l उसके बाद कम से कम सौ बार और देख चुका हू l हृषीकेश मुखर्जी का निर्देशन, गुलज़ार की पटकथा और संवाद, सलिल चौधरी का संगीत,, मुकेश, मन्ना डे, लता जी की अवाज, योगेश और गुलज़ार के बोल, और हाँ अमिताभ बच्चन, सुमिता सान्याल और सुपरस्टार राजेश खन्ना, लेकिन यह फिल्म इन सबसे बहुत बड़ी है l यह कहानी बहुत बड़ी है l जीवन के रस को खीच लेने वाली कहानी, पातक की जड़ को हिला देने वाली कहानी, वो कहानी जो आपको अंदर तक छू के निकल जाएगी l आप रोयेंगे, हंसेंगे और सोचेंगे l सोचेंगे अपने जीवन के बारे में l तो आइये आपको मिलवाते है आनंद से......
चलचित्र शुरू होता है कभी न सोने वाले शहर की एक चित्रमाला से l छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनल की आलिशान इमारत जिसपर विक्टोरिया के ज़माने की नक्काशी अँग्रेज़ी हुकूमत की याद दिलाती है l चित्र के रंग से आपको आभास हो जाएगा कि फिल्म सत्तर के दशक में बनी है l चलती डबल डेक्कर बस, सड़क पर धीमे बढ़ता ट्रैफिक, शिवाजी पार्क में क्रिकेट खेलते बच्चे और मरीन ड्राइव का अद्भुत नज़ारा, समझने में देर नहीं लगती की कहानी मुंबई महानगर की है l कंक्रीट के जंगलो के बीच एक आलिशान भवन में सरस्वती पुरस्कार का कार्यक्रम आयोजित किया गया है l बाहर कुछ साहित्यकार अपने समय में साहित्य की लोकप्रियता और उसके बदलाव पर चर्चा कर रहे है l
भवन के अंदर कैमरा जाता है जहाँ पुरुस्कार की घोषणा हो रही है l सरस्वती पुरुस्कार प्रति वर्ष सबसे उत्कृष्ट साहित्यिक रचना को मिलता है, इस बार यह एक ऐसे व्यक्ति को मिल रहा था जिसने अपनी पहली रचना से ही सबका मन मोह लिया था l डॉ भास्कर बैनर्जी को अपने उपन्यास आनंद के लिए इस पुरुस्कार से सम्मानित किया जा रहा था l डॉ बैनर्जी मंच पर आते है और बोलते है, " माफ़ कीजिएगा मुझे बोलना नहीं आता और सच पूछिये तो मैं कोई लेखक भी नहीं हू l लिखने की जो थोड़ी बहुत आदत है वो सिर्फ डायरी तक और जिसे आप मेरी कहानी या नॉवेल समझ रहे है वो मेरी डायरी के ही कुछ पन्ने है l अगर आनंद आपको किसी कहानी का चरित्र लगा है या किसी कल्पना की रचना महसूस हुआ हो तो वो कमज़ोरी मेरे लिखने में है l वो नाकामयाबी मेरी है l आनंद को दोस्तों का शौक था, लगता था हर वक्त हर जगह उसे किसी दोस्त की तलाश है l और इसलिए मैंने ये किताब छपाई की दो चार दस की गिनती से निकलकर उसकी दोस्ती मैं सारी दुनिया से करवा दू l जिन दिनों मैं आनंद से मिला मेरी दिमागी हालत अच्छी नहीं थी, मैं डॉक्टरी पेशे से बहुत निराश हो चुका था.......
और हमलोग चले जाते है डॉ भास्कर के स्मरण या फ्लैशबैक में l डॉ भास्कर समाज में बढ़ती भूख और गरीबी से परेशान चल रहे थे l दवाई वो दे सकते थे लेकिन लाचारी!! उसका इलाज क्या था l कैमरा आपको मुंबई की बस्ती में ले जाता है, डॉ बैनर्जी एक लाचार गरीब को देख बोलते है कि यह केस मेरे बस से बाहर का है l परिवार को निराश करके वो बस्ती में निकलते है तो एक अम्मा उनका मुह मीठा करवाते हुए कहती है, " लक्ष्मी को बेटा हुआ है मेरा पोता", इसपर डॉ बैनर्जी का आख्यान आपको सुनाई देता है उनके मन की बात, एक ऐसी बात तो कड़वी थी, सच्ची थी और अंदर तक झकझोर के रख देने वाली थी l
" एक मरा नहीं, और दूसरा मरने के लिए पैदा हो गया!"
एक गहरा सत्य हो आज भी भारतवर्ष की सच्चाई है, खैर मेरी फिलासफी किसी और दिन आगे बढ़ते है l अगले दृश्य में डॉ बैनर्जी अपने कमरे में डायरी पर अपनी कलम घिस रहे होते है, उनका दैनंदिनी लेख
आपको परिवेश में सुनाई पड़ता है -
" मानता हू की ज़िंदगी की ताकत मौत से ज़्यादा बड़ी है, पर क्या ऐसी ज़िंदगी मौत से बदतर नहीं l कॉलेज से डिग्री लेते हुए ज़िंदगी को बचाने की कसम खाई थी और अब ऐसा लगता है कि कदम कदम पे मौत को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रहा हू l"
डॉ बैनर्जी खुद में ही उलझे परेशान रहते थे l घर में उनके अलावा बस एक रघु काका थे, माता पिता का देहांत हो चुका था l पिता अपने ज़माने के नामचीन डॉक्टर थे सो डॉ बैनर्जी को अर्थिक रूप से सशक्त बना कर गए l और इसी वजह से डॉ बैनर्जी अपने कई मरीजों का इलाज मुफ्त में करते थे l इसके बावजूद जिस संतुष्टि की उन्हें तलाश थी वो कहीं गुम सी हो गयी थी l
एक दिन डॉ बैनर्जी अपने दोस्त डॉ कुलकर्णी के क्लिनिक में जाते है l डॉ कुलकर्णी का स्वभाव डॉ भास्कर से भिन्न है, वो अमीर मरीज़ों को बीमार न होने पर भी दवाई देते है और उसी कमाए हुए पैसों से गरीबों का इलाज करते है l 'माना उन्हें कोई बीमारी नहीं थी, पर बीमारी का शक था मैं उस शक का इलाज करता हू l' डॉ कुलकर्णी के क्लिनिक में उन्हें अपने पुराने मित्र त्रिवेदी की चिट्ठी मिलती है l
त्रिवेदी के एक मित्र आनंद सहगल को वो बंबई भेज रहे थे, डॉ कुलकर्णी और डॉ भास्कर के पास l आनंद एक ऐसी बीमारी से जूझ रहा था जिसका नाम भी एक साँस में लेना कठिन है ' Lymphosarcoma of the intestine' यानी आंत का लिम्फोसारकोमा यानी सादी भाषा में कैंसर l यह उस समय और लगभग गरीब आदमी के लिए आज भी एक लाइलाज बीमारी है l आंनद जीवित नहीं रहेगा यह तय था पर उसको मुंबई देखनी थी और बचा खुचा इलाज जो दिल्ली में होता वो यहां हो जाता, सो वो मुंबई आ रहा था l
तभी खबर आती है कि आनंद समय से जल्दी आ गया l डॉ कुलकर्णी उसे अंदर बुलाते है l अंदर आते ही आपको अंदाज़ हो जाएगा कि आनंद किस प्रकार का व्यक्ति है l जिंदादिल और खुश, प्रेम में डूबा हुआ और जीवन का रस लेने वाला l घुसते ही वो ज़ोर से चिल्लाता है, " दोस्त!!!! अरे कहा था न फिर मिलेगे, मिल गए न, अरे सुना बीच में तेरी शादी हो गई l भाभी कैसी है, कोई जूनियर सीनियर? अरे क्या यार, तीन साल शादी को और एक कंपाउंडर पैदा नहीं कर सके l क्या यार! तुम त्रिवेदी को कंस्लट करो l"
जब डॉ कुलकर्णी उसे डॉ भास्कर से मिलवाते तो पहली बार मिलने के बावजूद वो ऐसे बात करता है जैसे बरसों की दोस्ती हो और फिर आता है वो नाम जो हिन्दी सिनेमा जगत में अमर हो गया -
बाबूमोशाय!!!! जी हाँ बाबूमोशाय l
आनंद डॉ भास्कर से मज़ाक करने लगता है l डॉ भास्कर कुछ बोलते नहीं l आनंद के सवाल लेकिन खत्म नहीं हो रहे थे, भास्कर चिढ़ जाता है l
आनंद पूछता है - बीमारी का नाम तो बता दीजिए!!
भास्कर - नाम जान कर क्या करेगे आप?
आनंद - वो कुछ भी हो नाम तो बताना पड़ेगा l
भास्कर - अगर मैं कहु की आपको लिम्फोसारकोमा ऑफ दी इंटेस्टाइन है तो आप क्या समझेंगे?
आनंद - क्या क्या क्या क्या फिर से कहिये?
भास्कर - ( गुस्से में) लिम्फोसारकोमा ऑफ दी इंटेस्टाइन!!!!
आनंद इसमे भी हास्य ढूंढ लेता है वो बोलता है कि बीमारी हो तो ऐसी ऐसा लगता है किसी वॉयसराय का नाम है l यू आर ए ग्रेट डॉक्टर बाबूमोशाय, वाह वाह l भास्कर के सब्र का बांध टूट जाता है, वो चिढ़ के बोलता है कि ये मज़ाक की बात नहीं है, आप जानते भी है कि ये किस बीमारी का नाम है l
आनंद बड़ी शांति से कहता है, " मेरे पेट में एक भयानक किस्म का ट्यूमर है जिसके वजह से मैं छह महीने से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकता l शायद उसी का डॉक्टरी नाम होगा l" भास्कर सन्न हो जाता है l आनंद को पता है वो मरने वाला है पर फिर उसकी जिंदादिली देखो l उसके बाद आनंद वो बात बोलता है जो मेरी, आपकी सबकी ज़िंदगी बदलने की ताकत रखती है -
क्या फर्क़ है सत्तर साल और छह महीने में? मौत तो एक पल है बाबूमोशाय!! आने वाले छह महीने में जो मैं लाखों पल जीने वाला हू उसका क्या l बाबूमोशाय ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं!
आनंद ऊपर वाले कैबिन में शिफ्ट हो जाता है l आनंद तुरंत आसपास की नर्स और मैट्रन से दोस्ती कर लेता है l आनंद को उस दिन भास्कर की डायरी में जगह मिल जाती है, भास्कर लिखता है -
वो बात बात पे हस्ता ये जानते हुए कि वो मौत के मुह में है l हैरान हू की वो मौत पर हस रहा था या ज़िंदगी पर!!
तभी आनंद डॉ भास्कर के दरवाज़े पर आ जाता है l आनंद बोलता है कि वो मैट्रन के डर से कुलकर्णी का क्लिनिक छोड़ भाग आया l आनंद बोलता है जहां दोस्त वही इंसान खुश रहता है l वो आनंद से बोलता है कि उसे वही रहने दिया जाये l भास्कर डॉ कुलकर्णी को खबर कर देता है कि अब आनंद उसके साथ रहेगा l आनंद भी उस परिवेश का हिस्सा बन जाता है l उसकी दोस्ती डॉ भास्कर, डॉ कुलकर्णी, डॉ कुलकर्णी की धर्मपत्नी सुमन को वो अपनी बहन बना लेता है और मैट्रन को अपनी माँ l ये जानते हुए कि उसके जीवन का पठार तीव्र गति से मरुस्थल बनता जा रहा है l
आनंद की एक संकल्पना थी जिसे वो मुरारीलाल कहता था l राह चलते किसी भी आदमी को देख चिल्लाता, " ए मुरारीलाल! क्या पहचाना नहीं भूल गए बच्चू कुतुब मीनार पर बियर पीला के आउट कर दिया था l" यह काम वह हर राह चलते इंसान के साथ करता जिससे उसका बात करने का मन करता l जब एक बार डॉ भास्कर उससे कहते है कि पीठ पर हाथ देने से पहले देख तो लो कि यह मुरारीलाल है या नहीं तो आंनद कहता है, " मुरारीलाल नाम के किसी आदमी को तो मैं जानता ही नहीं l उससे मिलने को जी चाहा सो मिल लिया l देखो बाबूमोशाय कभी ऐसा हुआ है कि किसी आदमी ने तुम्हारा कोई नुकसान नहीं किया तब भी वो तुम्हें अच्छा नहीं लगता l कभी ऐसा भी हुआ होगा कि किसी ने तुम्हारा कोई भला नहीं किया तब भी वो तुम्हें तुम्हें अच्छा लग गया l हर एक बॉडी एक ट्रांसमीटर है और एक रिसीवर, जिस बॉडी से कंपन निकलती है उसे पकड़ो और दोस्ती कर लो l "
फिल्म के सबसे खूबसूरत दृश्यों में से एक है जब आनंद घर की मुंडेर पर खड़ा हो ढलते सूरज को देख कहता है -
कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाये
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए
मेरे ख्यालो के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए
कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए
योगेश के ये शब्द आपको बुद्ध की स्थिति में पहुचा देते है l वही स्थिति जो गीता पढ़ने पे प्राप्त हो l वही स्थिति जो मंदिर की जरस सुन के मिले l आनंद जब यह गाता है तो उसके भीतर छिपी हुई पीड़ा जो अक्सर उसके मासूम से चहरे पर नहीं दिखती सामने आ जाती है l यह इस फिल्म का वह हिस्सा है जो आपको आनंद के दूसरे मन की झलक देता है, वो मन जो हमेशा प्रसन्न नहीं रह सकता l
आनंद बाबूमोशाय यानी भास्कर के जीवन में प्रेम दूत का काम भी करता है l जिस तरह से वो भास्कर की महबूब रेणु जी उसके दिल की बात कहता है शायद उससे अच्छा तरीका आज भी किसी के पास नहीं होगा l इज़हार सरल और स्पष्ट था, तरीका ढूँढने की ज़िम्मेदारी मैं आपको देता हू, जाइए फिल्म देखिए और ढूँढ़िये l
एक दिन अपना मुरारीलाल ढूंढते ढूंढते आनंद की मुलाकात ईसा भाई सूरतवाला से होती है l वो उसी पल उनका दोस्त और फिर जिगरी बन जाता है l ईसा भाई नाटक कंपनी चलाते थे, सो आनंद उनके साथ चल देता है नाटक करने l वही आनंद को जीवन का एक सार मिलता है वही सार वो आगे जाके भास्कर के सामने दोहराता है l इससे पहले कि मैं उस संवाद और फिल्म के सबसे महान दृश्य पर जाऊँ मैं कुछ कहना चाहूँगा l आनंद में एक एक दृश्य, एक एक संवाद अपने आप में एक कहानी एक मनोरम तस्वीर है l अगर सब कुछ लिखना चाहू तब भी नहीं लिख सकता l आनंद अपने आप में एक जीवन है और इसे समझने के लिए आपको उसके दर्शन करने होगे l जाइए फिल्म देखिए और अपने जीवन को बदलते महसूस करिए l
अब आते है अंतिम सीधी पर l वो आखिरी बीस मिनट जो आपकी रूह को झकझोर के रख देते है l भास्कर के साथ एक बातचीत के दौरान आनंद ईसा भाई का सार उन्हें समझाता है -
'बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कैसे उठेगा, कोई नहीं बता सकता है ।'
आनंद चला जाता है, हम सब से दूर l आप जब इस चलचित्र को देख रहे होगे तो आपको ऐसा लगेगा कि आप भी आनंद के दोस्त बन गए है l एक रिश्ता कायम कर लेगे आप l पर जब उसी आनंद को तड़पता देखेंगे तो कलेजा फट जाएगा और आँख में आँसू आ जायेगे l जब आनंद अपनी आखिरी साँस लेता है तो परिवेश में उसकी आवाज़ गूँज रही होती है, अपनी बात वो दोहराता रहता है -
'बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कैसे उठेगा, कोई नहीं बता सकता है ।'
अंत में आपको डॉ भास्कर बैनर्जी की अवाज़ सुनाई देगी, गूँज सुनाई देगी जो कह रही होगी -
आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं....
आनंद मेरी रूह का हिस्सा है l जब भी जीवन में अकेलापन महसूस होता है तो निकल पड़ता हू मैं अपने इस दोस्त से मिलने l आनंद कभी मुझे निराश नहीं करता l आनंद कभी मुझे दुखी नहीं करता l हमेशा बाबू मोशाय, बाबू मोशाय बोलकर मेरा मन बहलाता है l आनंद ने मुझे जीना सीखाया है l सच मानिये बहुत लंबा जीने की मेरी कोई ईच्छा नहीं है, बस जितना जीना चाहता हू खुल के जीना चाहता हू l दोस्त बनाना चाहता हू, बहुत सारे दोस्त, प्यार करना चाहता हू, नाचना चाहता हू, लिखना चाहता हू, एक बार किसी ऊँचे पहाड़ पर जाके नीचे झरने में छलांग लगाना चाहता हू, जीवन का हर रस उसके हर एक पल का अमृत लूट लेना चाहता हू l और आनंद की तरह हसते हुए, लोगों को हसाते हुए फ़ना हो जाना चाहता हू l
आपको गुलज़ार सहाब की एक कविता के साथ छोड़े चलता हू, वही कविता जो मौत की एक तस्वीर सी खीच देती है l वही कविता जो आनंद को डॉ भास्कर सुनाते है l सच मानिये मौत को इतनी रूमानियत से कभी आपने नहीं देखा होगा -
मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
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