top of page

आश्वासन


(1)

जमना बड़ी देर बाद टहनियों का गट्ठा लेकर आई। बहुत थकी हुई मालूम होती है, हो भी क्यों ना! कड़ी धूप में पूरे जंगल घूम-घूम कर लकड़ियां जमा करना कोई लोहे के चने चबाने से छोटी बात न थी। जमना ने गट्ठर आंगन में सीढ़ियों के पास रख दिया और अंदर आ गई। मीरा मां का बेसब्री से इंतजार कर रही थी, उसने आते ही जमना का पल्लू पकड़ लिया। दोपहर का एक पहर बीत चुका था, सो भूख तो लगी ही थी। - "मां भूख लगी है कुछ खाने को दो ना।" अभी मीरा का बारहवां पिछले ही महीने लगा है। इतनी भी नादान ना थी कि मां की थकान ना देख सके, पर भूख ऐसी बला है जो विवेक पर हावी हो ही जाती है। कोई दूसरा दिन होता तो वह सत्तू घोलकर पी जाती, पर आज सत्तू खत्म हो गया है और जमुना ने मीरा को भंसाघर में चूल्हे के पास जाने से सख्त मना किया था। हुआ यह था कि कोई डेढ़ साल पहले पड़ोस की गीता का बेटा चूल्हे की आग में गिरकर चल बसा, जमना को अब डर सा हो गया है।

ईश्वर ने ना जाने मां को किस मिट्टी से साना है कि वह अपना सब भूलकर, संतान के सामने कुछ नहीं देखती। जमना थकी तो बहुत थी; अभी ठहर कर दो घूंट पानी भी गले के नीचे ना उतारा था, पर मीरा की आर्त याचना के सामने उसे कुछ ना ध्यान रहा। "हां मीरा अभी मैं कुछ बना देती हूं।" जमना गट्ठर से कुछ लकड़ियां ले आई। ज्यादा कुछ तो था नहीं थोड़ा आटा था, तीन रोटियां बनी और कुछ सुबह का साग था, सो उसने मीरा के साथ खा लिया।

जमना का पति बंसी आज 8 साल से बंगाली बाबू के खेतों में मजदूरी करता है। पर अब यह रोजी से ज्यादा दिन गुजारा नहीं होने वाला। बंगाली बाबू अपने खेत की जमीन विदेशी कारखाने को बेच रहे हैं। आखिर करेंगे भी क्या वंश में आगे कोई है ही नहीं। बंगाली बाबू सेक्रेटेरिएट में अच्छे पद से रिटायर हैं, बाप-दादा इतनी तो छोड़ ही गए थे कि जीवन भर बैठ कर खा सकें। अब जब आगे कोई है ही नहीं तो सब बेच-बाचकर पेंशन से गुजारा और तीर्थ करने का निर्णय कर लिया था। अक्सर अत्यधिक संपन्नता होने पर भी जब जीवन में शून्यता रह जाए तो उदासीनता व्यक्तित्व का अंश बन ही जाता है।

बंसी जब आज घर थोड़ा जल्दी लौट आया तब मीरा सो रही थी और जमुना पत्तल बना रही थी। जमना को विश्राम कहां था? सुबह घर के काम निपटा कर वह मीरा को पड़ोस में छोड़, लकड़ियां और पत्ते बिनने चली जाती थी और आकर पत्तों से पत्तल बना कर रखती थी ताकि बंसी उसे बाजार में बेच आवें। कुछ अतिरिक्त आय हो जाती थी। अब तक लगभग जमना चार दर्जन पत्तल बना चुकी थी कि बंसी को आते देख उठी। मुंह-हाथ धुलने को पानी दिया। बंसी को खोया और उदास देख जमना ने पूछा-

"क्या हो गया? बाबू ने कुछ कहा क्या?"

"अजी क्या कहेंगे! सब बेच रहे हैं। रोजी अब बंद होने वाली है। एक तो पहले से ही लकड़ियां कम होती जा रही हैं और अभी यह भी बंद।"

बंसी का यह कथन औद्योगिकीकरण के जनजातीय जीवन पर पड़ते प्रभावों का प्रतिबिंब है। बढ़ते औद्योगिकीकरण ने जंगलों को कहां छोड़ा है। बंसी के पूरक इन्हीं जंगलों में रहे, इन्हें पूजा और यही इनकी रोटी थी। वे लकड़ियां अवश्य लेते, पर वही जो खुद गिरती थी, कभी जंगलों को काट कर नहीं। पेड़ों को काटना तो इनके लिए अपने मां-बाप की हत्या के समान था।

"अब क्या करेंगे जी ?क्या खाएंगे ! कैसे गुजारा होगा! लड़की जात घर में है, जवान होती है और इस समय विधाता ऐसा दिन दिखाता है।"

जमुना के विषाद पुर्ण वचन भविष्य के अंधकार की ओर इशारा कर रहे थे। बंसी आगे कुछ कह ना सका। गट्ठर और पत्तल उठाए फिर बाजार को चल दिया। जमना मीरा का सिर सहलाती है मानो उस पर इन सब कि कोई आंच ना आने देगी- ऐसा आश्वासन दे रही हो।

क्या जमना अपना आश्वासन पूरा कर सकेगी?

(2)

आज भी बाजार में बहुत रौनक नहीं है। बंसी को माल बेचने में बड़ी देर लग रही है। पर जब तक दो जून का इंतज़ाम ना हो जाए तब तक वह घर ना लौटेगा। छांव में बैठे-बैठे बंसी अभी भी चिंता में है, जितना सोचता है उतनी ही सोच बढ़ती जाती है। एक पल को विचार आता है कि पलायन कर शहर चल दे, पर बाप-दादा की जमीन को त्यागने की उसमें ना तो हिम्मत मालूम होती है और ना ही रुचि। उसे इस विपदा में भी सबसे बड़ा बोझ मीरा मालूम होती थी। इसका एक कारण यह हो सकता था कि जमुना को शादी के छः साल तक संतान ना हुई थी फिर बहुत उपचार, पूजा-पाठ का खर्च करना पड़ा। इसके लिए उसने बंगाली बाबू से भारी कर्ज़ा भी लिया, पर अंततः जब लड़की हुई तो वह हताश और क्रोधित दोनों था। आज तक उसने मीरा से कभी बेटी का प्रेम नहीं किया। उसे तो अपनी सारी समस्याओं का मूल ही मीरा प्रतीत होती है। क्या गरीबी इतनी निर्दयी है जो एक बाप के मन में बेटी के प्रति इतनी नकारात्मकता भर दे?

बाजार में बंसी के इन विचारों के अलावा एक और खबर सभी के मन में है-

-ओह भाई ! क्या बात करते हो, दो लाख!

-हां, मुझे सुनने में तो यही आ रहा है। कहता है जवान लड़की की ज्यादा भी देने को तैयार है।

-शहर में ना जाने क्या करेगा, सब का कोई ठिकाना जान नहीं पड़ता।

-बोल रहा था किसी होटल, बंगले आदि में नौकरी रखवाता है। जितना लड़का चाहिए वो मिल भी गया!

-ऐसी क्या मजबूरी रही होगी परिवार की?

बस बंसी सभी चर्चाओं के बीच ही बैठा है। सब ध्यान से सुन रहा है। कुछ देर की ग्राहकी और बची है।

इधर जमना भी शाम को बाहर आस-पड़ोस की कुछ स्त्रियों के साथ बैठी सुख दुख बांट रही है। गरीबी में भले ही लाख अवगुण हो, परंतु इसका यह है गुण इसकी विशेषता है आज समृद्धवान शहरों, कस्बों में अपने फ्लैट, बिल्डिंग्स, गली-मोहल्लों में रहते तो हैं, पर अपने अलावा उन्हें किसी की कोई सुध नहीं। सामाजिक जीवन का ताना-बाना जो जमना गरीबी में रहकर महसूस करती है वह इनके लिए दुर्लभ है। खैर, वह खबर जमुना को भी मिलती है।

-छी! इ शहर के लोग ना जाने अपने को क्या समझते हैं? हम गरीब हैं तो हमें ये खरीद सकता है। हम बेटियों को तुम्हें बेचने के लिए जनते हैं क्या ?

-हां, जमना सच कहती हो। शहर में ना जाने क्या करता है ये लोग मैंने तो सुना क्या, देखा भी है कि वहां लुगाइयां मर्दन जैसे कपड़े पहनती हैं। शहर में तो इ सब आम बात समझता है वो लोग

-ऐसी जगह अपनी बेटी को बेचेगा सोचा भी कैसे जा सकता है।

जमुना एकाएक मीरा के उठने की आवाज से घबरा कर भीतर दौड़ पड़ी।

चंद्रमा तारकों के मध्य शोभित हो रहा है। बंसी को आज देर से आया जान जमना ने प्रश्नों की सूची तैयार रखी है पर आज के मिले समाचार के आगे वह सूची अपनी जगह ना बना पाई। जमना खबर का प्रस्तुतीकरण वैसे ही करती है जैसे कथावाचक कथा का। बंसी भी सब ऐसे सुन रहा था जैसे इन सब से अनभिज्ञ हो। अगली सुबह जब जमना अपने नियत समय पर उठी तो उसने मीरा को अपनी ओर ना पाया। समझी होगी- आज जल्दी उठ गई। परंतु उसे घर आस-पड़ोस कहीं ना देख उसका मन व्याकुल हो उठा। भांति -भांति के बुरे विचार मन में घर कीए जा रहे हैं। एक तरफ जहां जमुना शोकाग्रस्त है, बंसी अपनी सारी "चिंताओं" को बेच ऐसी नींद में सालों बाद सोया है। आस-पड़ोस जमा होकर जमुना को ठांढस बांधता है। पर मां से संतान को छीन लेने के दुख का घाव, सांत्वना के मरहम से नहीं भरता। जमना मीरा को ढूंढती हुई जंगल की ओर दौड़ पड़ी। हाय, जमना का आश्वासन.....!

14 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page