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उसी की फ़ज़ल है

Updated: Feb 2


तशरीफ़ लाएं थे कि इबादत-ए-सूरत-ओ-सीरत करने का पल है,

अल्फ़ाज़-ए-हम्द तो जुबां भूल ही गए जो दीदार-ए-रेशा-ए-आंचल है।


दरख़्तों को तिश्नगि-ए-महक हो उठी है इस खुश्क ख़िज़ां में,

कलियों का सिर्फ तसव्वुर है, क्यों करतें वें मेरी नकल है!


दहलीज के अंदर तो मैं काफ़िर-ए-आलम से बदनाम था,

ना जाने कैसे तेरी मुबारक गली में मेरा ईमान मुकम्मल है!


मेरी हरसत-ओ-आरजू के आईने को यूं चश्म ना कहा करो,

ज़िंदाँ-ए-हाफ़िज़ा समझो इन्हें या बेहतर, फ़िराक़-ए-दलदल है।


तू मुझे मुलाजिम ही समझ, कोई राब्ता तो होगा हमारे दरमियां,

मैं इतने में ही मुत्मइन हूँ कि तेरी जिंदगी में मेरा भी दखल है।


तेरी ग़लत-फ़हमी है कि मुझे सर-ए-महफ़िल में इंकार का ख़ौफ़ है,

इश्क-ए-मजाज़ी के हम हिमायती ही नहीं, झूठी हर ग़ज़ल है।


खोजने निकला था ‘मुतरीब ’ साया-ए-राहत-ए-अलम अपनी सुख़न से,

इल्म-ए-सर्फ़-ओ-नहव की बंदिश-ए-धूप में सब उसी की फ़ज़ल है।


*बिना बहर के यह केवल अश'आर समूह मात्र है, ग़ज़ल नहीं।

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