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कुटुम्ब (१)

1


वेद की गाड़ी लेट है। अब कोई ट्रेन समय पर आ जाए तो आश्चर्य होता है। सिस्टम के दोष तो है हीं, प्रकृति भी प्रतिकूल है। इधर कोहरा नहीं लग रहा था, बढ़िया धूप हुई हो रही थी। पर आज सूर्य नारायण ने दर्शन नहीं देने का मन बना लिया था। ऐसा जबदस्त कोहरा लगा है कि सुबह दस की गाड़ी रात को दस बजे से पहले नहीं आएगी। मिश्रा जी ऐसा ही अनुमानित करके रह गए। श्रीमती जी को कहाँ शांति है। उनके मुताबिक तो अभी से वो स्टेशन पर थाली लेकर खड़ी हो जाई। गाँव से मुख्य स्टेशन है भी दो घंटे दूर, पर मिश्रा जी को कोई चिंता नहीं। फिर कुछ सोच कर वो शाम सात बजे कुणाल को बुला लाए। कुणाल वेद का बच्चपन का दोस्त और पड़ोसी है। मिश्रा जी अभी नयी गाड़ी उसी से सीख रहे है, पर दो घंटे चला कर ले जाएँ और फिर वापस – उनसे न होगा। मस्त स्टेशन पर पहुँच कर उनका चाय पीना चालू हो गया। तीन घंटे में इतनी चाय पी ली कि मिश्राइन हफ्ते भर में जितना न देती। मधुमेह तो ठहरी ही बड़ी बेकार बिमारी है। एक बिमारी को दोष क्या देना। कोई भी बिमारी बेकार ही होती है। आज के जमाने में बिमारी और गरीबी ही है जो इतनी वफादार बची है। कुणाल की थोड़े ही सुनते मिश्रा जी। बेचारा कुणाल कह-कह कर थक गया, कभी वेद तो कभी चाची को शिकायत करने की चेतावनी देता। पर मिश्रा जी के कान पर जूं न रेंगी।

वेद हैदराबाद में आईटी कंपनी में काम करता है। होली – दिवाली पर हफ्ते-दस दिन के लिए आता है। हफ्ते-दस दिन परिवार के लिए काफी न होते। इकलौते बेटे से साल में बीस दिन की मुलाकात में किसका मन भरें। पर वेद के लिए यह उसकी एक जिम्मेदारी अथवा शेड्‌यूल सा हो गया था। हैदराबाद से लखनऊ की फ्लाइट और फिर ट्रेन, फिर बस और अंततः रिक्सा करके घर पहुँचना उसे न भाता। पर माँ-बाप की इस इच्छा को वह मना नहीं करता था। अबकी बार से बस और रिक्शा के धक्के से राहत हो जाएगी। अभी वह ट्रेन मे है। गानों की प्लेलिस्ट खत्म होने से अथवा बैटरी बचाने के उद्देश्य से इयरफोन हटा दिए। असल कारण बहुत स्पष्टता से तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी, पहले की सम्भावना कम ही है। आज के पीढ़ी के लोगों की जितनी उर्म नहीं उतने सैकड़ो तो उनके गाने की लिस्ट है। भांति- भांति के ! कहा गया है न कि कला, उसमें भी विशेषकर संगीत जाति, समाज, देश और काल के बंधनों को नहीं मानती। अंग्रेजी, हिंदी (अनेक बोलियों सहित), पंजाबी, टर्कीस से लेकर कोरियन, सभी हैं प्लेलिस्ट में!

खैर, इयरफोन हटा लेने पर आवाज़ एक जगह से बंद हुई तो दूसरी तरफ से चालू। तीन-चार महोदय जिनकी बातों से वे सरकारी कर्मचारी मालूम होते थे और बिना टिकट लिए सीट पर दावा किए विराजमान थे (दोनों विशेषणों का कोई आपसी संबंध नहीं है अथवा है!) खूब जोर-जोर से बातें किए जा रहे थे। दो पुलिस विभाग से दो शिक्षा विभाग के –

-अरे भईया ! ये नई सरकार ने तो जीना दूभर कर दिया है हम पुलिसवालों का। जब मन तब तैनाती हो जाती है।

-सही कहो भईया । यही हाल तो इधर भी है। इतनी सख्ती कर दी शिक्षा विभाग में। पहले हफ्तें मे एक-दो दफा स्कूल जाते थे, कोई पूछने वाला न था। अब बायोमेट्रिक लगने से सब सुख-चैन नष्ट हुआ पड़ा है।

-आपका वर्किंग आवर तो तय हैं। हमारे रात दो बजे एसएचओ का काॅल आए तो दौड़े जाओ। उपर से फिर दिन में फलाना मंत्री की रैली है, तो कभी मुख्यमंत्री हर हफ्ते उद्‌घाटना करने निकल पड़ते है। प्रधानमंत्री भी महीने- दो महीने में दर्शन पे आ ही जावें है। तब का तो पूछों न भईया। एसे ही नाईट ड्यूटी लग जाए तो पूरी रात गस्त पे चल दो।

किसी को अपना दुख कभी छोटा और अपना सुख बड़ा मालूम हुआ है भला। चर्चा जारी है-

-ये इधर भी नया-नया नियम निकाल के नाक में दम किए हुए है। अभी देखिए पहले होम डिस्ट्रिक्ट तो नहीं ही देता था। अब बाॅडर डिस्ट्रिक्ट भी नहीं ।

-ये तो हमारे यहा भी है। और सुनिए। वो डिस्ट्रिक्ट में आपका कोई नाते – रिस्तेदार भी नहीं होना चाहिए। अब क्या नेपाल में पोस्टिंग लेवें जाकर। कुल खानदान हमार यहीं हैं।

-बड़ी समस्या है भइया । अच्छा जरा एक ठो बात बताइयेगा। ये प्रमोशन का क्या है। एसआई का कोई फाएदा वगैरह है?

-है न, बड़ी है। स्टार लग जाएगा कांधे पे।और का चाही।

-नहीं मतलब लोड कैसा है?

-लोड तो देखिए, रहेगा। बढ़िया रहेगा। शांति भूल जाइये और घर-परिवार का तो सिर्फ चेहरा देखिएगा । छुट्टी न नसीब हो ।

-तब कैसे कहतो हो बढ़िया है। हम तो समझते है कि जो संतोखी है, उसके लिए सबसे प्रिय है-परिवार और शांति- सुकून।

-हमारा भी था पुलिस में अपॉइंटिंग। दो महिना किए भी, न हुआ तो छोड़ दिए। शिक्षा विभाग में हो गया था तो इतना तो है कि परिवार के साथ दो जून का खाना खा लेते है। पैसा ही सब कुछ नहीं समझते हम।

विवाद का विषय तैयार हो चुका था। वेद को सुनने में दिलचस्पी थी नहीं। पर बातें तो कान में गई ही। अंतिम बात विशेषकर, सायद इसलिए कि कुछ अंश स्वयं पर भी लागू होते हों। अगला स्टेशन उसी का था। ज्यादा देर का ठहराव नही था, तो वह समान बांधकर दरवाजे पे चल दिया। उधर फ्लेटफार्म पे अनाउंसमेंट हो रहा था, तब भी मिश्रा जी के हाथ में चाय का प्याला ही था। वेद आ गया और फिर शिष्टाचार भेंट और आरंभिक बातें कर दोनों मित्र और मिश्रा जी घर को अग्रसर हो लिए। वैसे मिश्रा जी का अनुमान गलत रहा। गाड़ी और लेट ही हुई।


2


मिलन के घटनाक्रम को विस्तारित करना माँ के चहरे की मुस्कुराहट और खुशी के आंसुओं से अन्याय होगा। उसकी ममता का विवरण उसे कमतर आंकना होगा। और पिता की आत्मीयता और स्नेह की सुगंधित छाया को शब्द-शरीर देना अपराध से कम नहीं। दादी माँ को अपने पुत्र के पुत्र को देख पाने के अपने जिस सौभाग्य पर प्रसन्नता है और जिसके लिए वह हरिपद से आसक्ति त्यागने को तैयार है, उसके इस प्रसन्नता एवं त्याग को अपमानित कर अक्षरित करना पाप है। एक मित्र के दुसरे मित्र से महिनों बाद प्रत्यक्ष मिलने को और गले से लगा कर बच्चपन की समस्त यादों को पुन: जिवंत होने के एहसास को व्याकरण के नियमों के अधीन नहीं किया जा सकता।

बड़ी देर हो गई थी घर पहुँचते-पहुँचते। मिश्राइन ने खाना गरम कर लगाया । आज बहुत माह बाद परिवार साथ में खा रहा था। दादी ये अवसर नहीं जाने देती। जवान पोते के साथ बैठकर खाने का अवसर किसी-किसी को ही नसीब होता है। घर के चार बड़े बैठे हो और साथ में जवान लड़का, तो विवाह की चर्चा न होना उसी प्रकार है जिस प्रकार मानों वक्र चंद्रमा को राहु ने ग्रहण लगा दिया हो (दोनों असंभव है)।


-तो कोई है कि नहीं, बता दो।

-मतलब ?

-क्या मतलब! उमर बीती जा रही, शादी के लिए कोई लड़की वगैरह हो तो बता दो। बात की जाए।

-क्या माँ ! एक ही बात तुम हर बार करती हो नही करनी अभी शादी। नहीं है कोई।

-ठीक तो कह पूछती है तुम्हारी माँ। तुमसे तो पुछ भी रहे। हमसे नहीं पूछा गया था। न यकीन हो तो दादी से पूछ लो।

-हाँ ठीक है। नहीं है कोई। अब ?

-अब क्या ? हम लोग अपनी तरफ से खोजेंगे।

-जो करना है करिए, बस मेरे पीछे मत पड़िये । और अब कोई बात करते है। आपकी डायबिटीज़ का क्या हाल है?

डायबिटीज़ की बात छेड़ कर वेद ने बात तो बदल दी थी। पर अभी वह जिम्मेदारियों और परिवार को संभालने का इच्छुक नहीं है। उसकी दिलचस्पी शादी करने में बिलकुल नहीं थी। काम में वह ऐसा फंसा हुआ मालूम होता है कि उसके जीवन में अब परिवार से बहुत मोह नहीं बचा।

गांव की सुबह कुछ अलग ही होती है। वहां तो इतनी साफ हवा और खुला आसमान होता नहीं। सुबह-सुबह पक्षियों का कलरव, उगते सूरज की लालिमा, खेतों में जाते किसान, गौऐ दुहती औरतें- कुछ अलग ही एहसास देता है। इन्हीं नजारों को निहारते हुए वेद छत पर खड़ा है। तभी उसे एक अचरज भरा दृश्य दिखाई पड़ता है। वह देख रहा है कि एक युवती ट्रैक्टर चला ले जा रही थी। यह श्रुति थी।

श्रुति कोई गाँव की गंवार नहीं थीं। वेद से ज्यादा पढ़ी-लिखी और क्वालीफाइड है। पर उसने स्वेच्छा से शहरी निगमित जीवनशैली को छोड़ा है। घरवाले पहले तो राज़ी नहीं हुए पर फिर उन्होंने परिस्थिति का स्वीकार कर लिया। समय कितनी जल्दी बदलता है। आज से पचास साल पहले लोग घर के नौयुवकों के शहरी पलायन का विरोध करते थे चाहे कितनी ही गरीबी में क्यों न हो। पर आज गांव का समृद्ध परिवार भी नहीं चाहता उसकी अगली पीढ़ी गाँव में रुके। मुख्य कारण यह समझ आता है कि औधोकिकरण के इस युग में मीडिया के विज्ञापनों ने ऐसी छवि बना दी है कि गाँव विकास में बाधक है और शहरी जीवनशैली ही व्यक्तिगत उन्नति सुनिश्चित कर सकती है। और गहराई में समझा जाए तो इस छवि का जिम्मेदार पक्ष सरकार भी है। आजादी के साठ-सत्तर वर्षों बाद भी गाँव तक बुनियादी सुविधाएँ नहीं पहुँचना विज्ञापनों के उस कथित सत्य की पुष्टि करता है।

श्रुति अब गाँव में ही पुरे परिवार के साथ रहती है। उन्हीं गलियों में आज भी निकलती है जिनसे वह कभी स्कूल जाया करती थी। उन्हीं खेतो में आज काम देखती है जिनमें उसने बच्चपन के खेल खेले थे। उसी नीले गगन के नीचे वो अब मेहनत करती है जिसके नीचे उसने पंतगबाजी में न जाने कितनी बार अपने से बड़े लड़को को भी पराजित किया है। तो फिर लड़कियों का क्या कहना। श्रुति हमेशा से अलग विचारों और क्रियाओं वाली रही हैं। वह यहाँ सुकून से है। वो बेंगलुरु में उसकी नौकरी के दो साल उसके जीवन की सबसे बुरी यादें है। परिवार से न केवल शारीरिक रूप से दूर बल्कि मानसिक कटाव भी। न कोई मित्र, न कोई सहारे का कंधा, अनियमित जीवन शैली। न सोने – जगने का, न खाने-पीने का, न हंसी, न दुख – किसी का कोई ठिकाना ही नहीं। सिर्फ काम की निरसता । मन अप्रसन्न हो तो काम निरस ही होता है। कईयों के लिए बनावटी सांसारिक रस निरसता को छल देता है। श्रुति को यह नहीं भाए। उसने निर्णय ले लिया कि वो वापस लौट जाएगी। और आज इस निर्णय पर गए हर्षित गर्व करती हैं।

श्रुति और वेद आखरी बार दशवीं कक्षा में मिले थे, फिर दोनों के रास्ते अलग हो लिए। बालपन की कई यादों का स्मरण हो आता है। तब पुरे गाँव में एक ही टीवी हुआ करता था। वेद के ही घर पुरे गाँव के लड़के-लड़कियों जमावड़ा लगता था। श्रुति भी आती थी। मिश्राइन टीवी के सामने दरी बिछाती, बढ़िया नास्ता बनता और सभी बच्चे साथ में टीवी देखा करते थे। फिर अंताक्षरी – लूडो जैसे खेले भीं सब साथ में खेला करते थे। तब सब नादान थे। कोई समझ नहीं, कोई स्वार्थ नहीं, कोई छल नहीं, कोई जिम्मेदारी नहीं। बस स्वच्छंदता का मनोरम एहसास। अब धीरे-धीरे जो सब बड़े हुए तो, कारण कोई भी हो, विलगाव हो गया ।स्वच्छंदता सिमट गई और जिम्मेदारियों की मरुभुमि में संबंध की सरिता लुप्त हो गई। और छोड़ गई एक नीरस, एकांत, शुष्क परिदृश्य !

वेद बड़े उत्साह के साथ सबको यह आंखों-देखा घर में बताने के लिए आया, तो उसे लगा कि घर वाले आश्चर्यचकित होंगे। पर उल्टे वही यह जानकर दंग रह गया कि वह और कोई नहीं उसके बचपन की दोस्त श्रुति थी।

-तू यहाँ नहीं रहता। हम और वो तो यही रहते है। रोज का आना-जाना है उसका। आज भी तुझसे ज्यादा वो यहाँ रहती है।

-अच्छा! तो हमेशा के लिए ही बिठा लो उसको घर में।

-हाँ, वही करने का इरादा है। तुझसे बोलने ही वाले थे।

-क्या ! क्या बोलने वाले थें?

-तेरे और श्रुति के रिस्ते का विचार है। तो तुम तोड़ा उससे जान-पहचान बढ़ाओं। जीवन साथ बिताना है अब दोनो को।

-कुछ भी कहे जाते हो तुम लोग। उससे मिले हुए अरसां हो आया है और तुम जीवन भर का बोझा दिए जाती हो। गजबै हिसाब है तुम्हारा !

इतना कह वेद तमतमाते हुए बाहर चला गया। मिश्राइन ने कुणाल को समझाने-बुझाने उसके पीछे भेज दिया।


क्या वेद और श्रुति का कोई भविष्य होगा? क्या वेद राज़ी होगा? क्या श्रुति वेद के जीवन में एक नई दिशा देगी? क्या वेद “कुटुम्ब” का अर्थ समझेगा?

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