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'तुलसी' की कलम से


अक्सर हिन्दी की रीतियों में विचरण करते हुए आप यह पायेंगे कि भाषा की विधा में उत्थान का काल या तो तब आया जब सत्ता की स्थिरता कई सौ वर्षों तक बनी रही तथा सत्ता और संस्कृति एक दूसरे की पूरक रही हो l वही दूसरी ओर एक अनोखा उत्थान तब देखने मिला जब विदेशी आक्रांताओ ने सत्ता का शीर्ष को ज़ब्त किया तथा हमारी सभ्यता को अपने पूरक बनाने का प्रयास किया, ऐसे में साहित्य के शूरवीरों ने न केवल अपनी अजा और पराक्रम का प्रमाण दिया बल्कि साहित्य की कुछ ऐसी रचनाओ को जन्म दिया जिन्होंने हमारी संस्कृति तथा सभ्यता के शास्वत अचल की नीव रखी l आज यह लेख उस कवि के नाम है जिनकी मुगल शासन काल में लिखी गयी एक रचना ने भारतवर्ष के साहित्यिक इतिहास को स्वर्णिम कर दिया, वो रचना जिससे देश का बच्चा बच्चा परिचित है l आज का यह लेख उसी कवि के नाम.... 


बचपन से माँ को पढ़ते सुना था - 


“संवत् सोलह सौ इकतीसा। करौं कथा हरिपद धरि सीसा।।


नौमी भौम वार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।।”


मानस के प्रारम्भ की कहानी, सोलहवें संवत के इकतीसवे वर्ष अर्थात सन् १६३१ के चैत्र मास, शुक्ल पक्ष की सोलहवीं तिथि को यह महाकाव्य पूर्ण हुआ l माँ ने बचपन में ही अपने बगल में बिठा कर मानस सुनाने की आदत डलवा दी l वो पढती और मैं सुनता l एक एक पद, चौपाई और दोहा वो गा के सुनाती, मैं किसी गुम विद्यार्थि सा सुनते जाता l क्या बोला जा रहा था क्यों बोला जा रहा था किसके लिए बोला जा रहा था समझने में मुश्किल होती थी, ग्रंथ की भाषा अवधि थी तो समझ बूझ का फेरा लाज़मी था पर इसके बावजूद न मैने बैठना छोड़ा न माँ ने मुझे अपने आंचल से दूर जाने दिया l दिन भर चाहे कुछ करो परंतु प्रातः काल दो घंटे मानस सुनना आवश्यक था, उसे कहीं न कहीं ये लगता था कि केवल मानस की धुन कान में पड़ने से उसके बेटे में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीं राम के कुछ गुण आ जाएगे l मैं भी वो दो घंटे बिना कोई ना नुकुर किए बैठ जाता क्योंकि इतना तो हर बच्चे की तरह मैं भी जानता था, राम भगवान थे और मानस उनकी कहानी अर्थात मानस सुनना पूजा पाठ का हिस्सा है, पूजा पाठ करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान से धन, शौर्य और वैभव इसलिए मानस सुनना अच्छी आदत है और बचपन में सबको अच्छा बच्चा बनना होता है, ये तो यौवन का तूफान न जाने कब आता है और उस बचपन की मासूमियत को रौंदता मन में लालच, विलास और क्रोध के थपेड़े छोड़ जाता है l 


खैर जब बाद में खुद मानस पढ़ी तब पता चला कि समय के साथ धार्मिक ग्रंथ बन चुकी यह रचना असल में एक काव्य है, ऐसा काव्य जिसका मकसद वाल्मीकि रामायण को आसान भाषा में घर घर पहुचना था l और ये प्रयोजन सफल भी रहा l आज रामचरित मानस की एक प्रतिलिपि धर्म की परिधि को चीरते हुए हिन्दुस्तान के हर घर में आपको मिलेगी l आज हर एक सनातनी कुनबे में प्रातः काल मानस का पाठ होता है, हर मंदिर में इसकी चौपाइयों को गाया जाता है l इसका पाठ वाल्मीकि रामायण और वेदों के पाठ के समान्य माना जाता है, यह ग्रंथ केवल एक काव्य नहीं बल्कि एक अटल और धार्मिक विश्वास बन गया है l 


मैं तो उस कवि की महानता को नापने का प्रयास करता हू जिसकी रचना को समाज ने ईश्वरीय स्थान दे दिया, पर फिर गगन की ऊँचाई नापना सम्भव नहीं, वो तो अनंत है बिल्कुल मानस की तरह l यू तो मेरी इतनी बिसात नहीं की गोस्वामी तुलसीदास के बारे में कुछ लिख सकू परंतु काव्य में मौजूद उदारतावाद को धन्यावाद की इस वंश के सबसे तुच्छ प्राणी को भी अपने ईश्वर की कथा कहने का उतना ही अधिकार है जितना इस वंश के शिरोमणि को l आज मैं उस महापुरुष की जीवनी को आप तक पहुंचाने का प्रयास करूँगा जिसने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीं राम की जीवनी को संपूर्ण आर्यावर्त तक पहुंचाया l 


गोस्वामी तुलसीदास - जीवन परिचय 


प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास वाणी के वरद पुत्र और भारतवर्ष के गौरव थे l इनका अभिभार्व उस समय हुआ था जिसका समय सम्पूर्ण भारत में मुगलिया सल्तनत का परचम ऊँचा था l 


इनके जन्म संवत के संबंध में अनेक विवाद है l कोई इनका जन्म सन् १५३२ मानता है तो कोई सन १५५४, खैर तिथि कोई भी हो कालखंड का अनुमान हो जाता है l कहते है इनके पिता आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था l इनके जन्म के कुछ वर्षो पश्चात ही इनके माता पिता का देहांत हो गया l तुलसी निराश्रित हो गए l कुछ समय तक एक दासी के यहाँ इनका लालन पालन हुआ, किन्तु जब वह भी असमय ही काल-कवलित हो गई, तब ये अनाथ होकर इधर उधर भटकने लगे l अपनी इस दिन अवस्था का वर्णन कवि ने अत्यंत कारुणिक शब्दों में किया है l 


प्रेरणा 


इसी प्रकार दाने दाने के लिए भटकते हुए उनकी मुलाकात नरसिंह चौधरी से हुई l नरसिंह चौधरी को बालक की अवस्था देख अत्यंत दुख हुआ, उन्हें पता नहीं कैसे यह भान हुआ कि यह बालक कोई भावी महापुरुष है, सो उसकी शिक्षा दीक्षा का पूरा भार उन्होंने ले लिया l कुछ दिनों बाद उन्होंने तुलसी को काशी के शेष सनातन जी की देख रेख में छोड़ दिया l वही रहकर बालक तुलसी ने वेद शास्त्र आदि का गहन और गंभीर अध्ययन किया l इसके पश्चात अपनी जन्मभूमि सोरों चले गए l 


जनश्रुति के अनुसार विवाह सोरों के निकटस्थ बदरिया ग्राम की दीन कन्या रत्नावाली से हुई l विवाहोपरांत इनकी स्थिति ऐसी हो गई कि एक क्षण भी पत्नी बिना नहीं रह पाते l संयोगवश एक दिन इनकी अनुपस्थिति में कन्या अपने भाई के साथ मायके चली गई l जब तुलसी घर लौटे तो अपनी अर्धांगिनी को न पाकर अत्यंत दुखी हुए l वे शीघ्र ही ससुराल को दौड़ पड़े, रात की कोह ठंड को चीरते, भादो की नदी को पार करते हुए बदरिया ग्राम अपनी पत्नी के पास पहुचे l यह देखकर पत्नी को आत्मग्लानि हुई और फटकारते हुए उन्होंने कहाँ-


अस्थि चर्म मय देह यह ,ता सौ ऐसी प्रीत 

नेकु जो होती राम में ,तो काहे भव भीत


अर्थ हुआ यह कि इस अस्थि, रक्त और मांस के पुतले को आप जैसा प्रेम करते है वैसा अगर राम से होता तो सांसारिक बाधाओं से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते l 


ज्ञान प्राप्ति और रचनाएं 


पत्नी का उपदेश सुनते ही तुलसी के ज्ञान चक्षु खुल गए l वे तत्क्षण वहाँ से चल पड़े तथा काशी आकर भगवद्गभजन में लग गए l वैराग्य धारण किया तथा समस्त भारत का भ्रमण कर राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थितियों का अध्ययन किया l उन्होंने मानस का कष्ट देखा और अत्यंत पीड़ा से ग्रसित हुए l तीन स्थानों को उन्होंने अपने युक्त समझा - काशी, अयोध्या और चित्रकूट l अपना शेष जीवन उन्होंने इन्हीं तीन स्थानो पर काव्य अध्ययन किया l 


तुलसी ने अपना संपूर्ण जीवन साहित्य साधना में लगाया l उन्होंने लगभग तेरह पुस्तकों की रचना की, जिसमें रामचरितमानस और विनयपत्रिका का स्थान सर्वोपरि है l रामचरितमानस लिखकर तुलसी अमर हो गए l इस रचना में उन्होंने राम के उदार चरित्र का वर्णन किया है l मर्यादापुरुषोत्तम राम के माध्यम से उन्होंने उन सभी गुणों का समावेश किया जिनसे मनुष्य महान पद का अधिकारी हो सकता है l मानस ने काव्या कला को अपने चरमोत्कर्ष पर पहुचा दिया l इसमे काव्य के सभी नव रसों का सम्यक परिपाक हुआ है l इनकी अन्य पुस्तके है - गीतावली, कृष्णगीतावली, दोहावली, कवितावली और बाहुक l 


हिन्दी साहित्य में अबतक तुलसी के समान कोई कवि उत्पन्न नहीं हुआ l तुलसी की कविता धारा हमारे सम्पूर्ण कलुष को धों - पोंछ कर स्वच्छ कर देने लिए प्रवाहित होती है l तुलसी एक ही युग के नहीं है, वो तो युग युग के कवि हैं l इन्होंने स्वान्तः सुखाय कहकर ही काव्य की रचना की किन्तु अंत में यह परान्तः सुखाय बन गया l विश्व वेदना से तपकर निकली हुई करुणा सम्पूर्ण विश्व की करुणा हो गई l इनकी कविता का आदर्श सदा यह रहा - 


कीरति भनिति भूति भलि सोई। 

सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥


अर्थात कीर्ति, कविता और ऐश्वर्य वही सुन्दर है जिससे जाह्नवी समान सबका कल्याण हो l जिस कविता में विश्व कल्याण की भावना नहीं वह कविता कविता नहीं l काशी में ही काव्य के इस सूरज ने आकाश की परिधि को पार किया और देह का त्याग किया l 


संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर । 

श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ॥


तुलसी अपने काव्य के माध्यम से, अपनी भक्ति के तेज़ से और अपने ज्ञान के प्रकाश से सदा हमारे मन के तम कोनों को रोशन करते रहेगे l आप में से जिन्होंने मानस नहीं पढ़ी वो ज़रूर पढ़े, अगर आप नास्तिक भी है तब भी एक अद्भुत काव्य समझ के पढ़ लीजिए, ये आपके जीवन में नया प्रकाश लाएगी इसमे कोई दो राय नहीं l बाकी जिन्होंने पढ़ ली है वो दोबारा पढ़े, ज्ञान की गंगा में कितनी भी डुबकी लगा लो हमेशा बाहर आने पर एक नए तेज़ की अनुभूति होगी l आज मेरी तरफ़ से बस इतना ही अगली बार एक नए कवि एक नयी रचना का विवरण लाऊँगा l अपनी आकांक्षाओं को नयी उड़ान भरने दे, नयी चीज़े पढ़ते रहे, नए ख्वाब देखते रहे l 


सुंदरता कहुँ सुंदर करई। 

छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥

सब उपमा कबि रहे जुठारी।

केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥


- वह सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है। ऐसी मानो मंजुल रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। अब तक कलित रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी के रूप कि दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, और भी अधिक रम्य हो गया हो । सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दू l 


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