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परिवाद

Updated: Jun 2

मैं ना कहता तुमसे, तो तुम ही क्यों ना कुछ कहती हो?

मुझे जाता देखकर क्यों बल से ना मेरा कर गहती हो?

क्या एक मेरा अधिकार है? तेरा कुछ स्वामित्व नहीं?

प्राण! प्रणय प्रण का एक सिरे से बंधन होता है कहीं?


क्यों आंचल का अंबर नहीं सजता प्रीत पयोद विरही पर?

क्यों नहीं होती आह्लाद वृष्टि तृषित मेरे मन मही पर?

यूं तो मैं भीत नहीं, पर तेरे नीरव अरगान से बड़ा त्रास होता है,

क्यों उस तीक्ष्ण शांत मंडल में व्यग्रता का आभास होता है?


प्रशंसा का लोभ ना सही, किंचित कलुष तो पूरन कहो,

प्रीति का सागर लोप करके रोष की विरल धार ही बहो।

कर्णों को करके वंचित तुम, कैसे इठलाती हुई बैठी हो,

मेरा मुझसे ही द्वंद्व कराकर उपहास करती हो या ऐंठी हो?


ना व्याख्यान, ना वाक्य, ना ही शब्द समूह की याचना है मेरी,

छंद युक्त मेरी असंख्य पंक्तियाँ, तेरे निरुत्तर 'हूं' की है चेरी।

क्यों वह भी कहने में तुझे करना होता है कालांत विलम्ब?

क्या मेरे श्रवणों को वर्णों का मधु विष भी नहीं अवलम्ब?


जिन तरुण अरुण अम्बुज चरणों पर गूँजते भ्रमर नुपुर हैं,

जिनके कलरव आसव रसास्वादन को मेरे कर्ण आतुर हैं,

शोभित पद पर तेरे जो चन्द्रहास, मानों करते वे चन्द्र हास,

फिर क्यों करवाती तू प्रिया, मेरे श्रुतिपटों से रौरव उपवास?


लगता साक्षात शारदा का मृदुल स्वर, झंकार वलय का,

कभी लाक्षा, कभी काँच, तो कभी स्वर्णिम हिरण्य का।

अहो! मुझ दीन पर इतना आशीष भी क्यों नहीं होता?

क्या कभी नहीं बन सकते मेरे कान बापुरे उनके श्रोता?


नयनों की व्यथा कथा का गावक मैं ना बन पाऊंगा,

अवलोकन मैं ना पाता हूँ, फिर क्या मैं तेरा मन पाऊंगा?

दृष्टि गोचर हूं भले मैं तेरे, पर तू कब आंखे मिलाती है,

आंखों की आभा से क्यों नहीं मन वन में वनज खिलाती हैं?


तेरे भृकुटी का विलास मानों मदन संग रति की क्रीड़ा हो,

कामसेन के कर में शोभित प्रणय चाप की डाह पीड़ा हो,

इन भौंह कच के गहन कानन में आनन ओझल होना चाहे,

मेरे एकांत सागर की बोहित से वंचित क्यों मैं, प्रिया हे!


पलकों की ओट लेकर तुम मुझसे बड़ा अन्याय करती हो,

मृगनयनी तुम मुझसे क्यों मेरी मृगतृष्णा हरती हो?

क्षणिक मुझे उन्माद मिले यदि लोचन चार हो जाएंगे,

लेकिन मेरी आंखों की वृद्धि भला तुझे कभी भाएंगे?


विधु वल्लभ चकोर का प्रण भी स्वाति पूरा कर देती है,

यहां एक मुझ विरही की नयन गुहा में अश्रुजल भर देती है।

आंखें आंखें बिछाए बैठीं हैं कि कब चंद्रानन उदय होगा,

ना जाने अब कब तेरे रिस का आच्छादित राहु क्षय होगा?


सित मुख पर तेरी ये असित अलकों का होता है मिलाप,

मानों धवल गंग संग कृष्ण यमुना का होता हो प्रेमालाप।

इस तीरथ का अवगाहन क्या, मुझे तो दर्शन भी प्राप्त नहीं,

कहो, मेरी अबोध आंखें ऐसे किस पातक में व्याप्त रहीं?

अम्बर अपिहित तन तेरा ज्यों मेघ मध्य दामिनी द्युतिकारी,

रेश्मी रेशा हो अथवा हो सूती सूत- नहीं यें संसारी,

परन्तु इनसे मेरा परिवाद भी, हैं तेरे अंबर अंबक अपराधी,

इनको तजकर न्याय क्यों नहीं करती तुम संग मुझ वादी?


यद्यपि तुझ भव्या को लौकिक शृंगार आवश्यक है नहीं,

किन्तु सदा तेरे सज्जित रूप के लोभी लंपट दृग यें विरहीं।

भाल पर यह विलसित बिंदी, कानों पर मंडित कर्णफूल,

मेरे नयनों से इन्हें लुका कर क्यों देती तू मुझको शूल?


मेरे नयनों को प्रियतम तेरे रक्तिम अधरों की यह स्मित रेख,

तारक मध्य एकम कला मयंक का इनके समक्ष क्या लेख?

भंवर जूथ सरिस कुंजित केश से पाएं नयन मेरे मृदु पाग,

कब बुझेगी अनुराग से इन लोलुप लोचन की विराग आग?


तन निकेतन की जीभ ड्योढ़ी पर है तेरे नाम का दीप,

विरह तिमिर ग्रसित मन आंगन होता है जिससे प्रदीप।

परंतु तेरी विगत स्मृतियों के घृत का अब अकाल होता है,

प्रिया! प्रेम पय मथकर क्यों नहीं नव घृत का अथाह होता है?


प्रेम बढ़े जूठन से - कहते है लोग बड़ा विश्वास प्रकट कर,

सौंधी- सौंधी कुल्हड़ में जो चाय स्पर्श करें तेरे मधुरिम अधर,

यह प्रसाद देवी का, पाने को मुझ भक्त की जिह्वा क्षुधित है,

प्रिया! क्या मेरी यह प्रलुब्ध पिपासा तुझ को नहीं विदित है?


काव्य‌‌ में जो अलौकिक आनंद आता वही काव्य‌ का रस है,

त्यों ही तेरे कर पकाए पकवानों समक्ष रसिका मेरी विवश है।

तू जो पका दे खिचड़ी भी, सामने कहाँ टिकेगा छप्पन भोग,

कब तक रहेगा इस निरस रस से रसना का विकट वियोग?


मेरी जीभ की ओझल स्मृतियों में तेरी उंगलियों का स्वाद है,

तुम्हारी अंजलि भरा हुआ कौर मेरी स्वादेन्द्रिय का उन्माद हैं।

तर्जनी की रसिकता ऐसी मानों बने हलाहल से भी अमृत,

फिर अमरत्व का रसास्वादन करने को मैं क्यों नहीं अधिकृत?


मैं अब समझ गया हूँ, मेरे संग तू यह जानबूझकर करती है,

हंस नीर क्षीर विवेक का उलट उपयोग मुझ पर करती है।

मेरा मन मानस मंथन मुक्ता मुद्रित है जीभ ताल-तल पर,

हंसिनी ! क्यों नहीं चुगते उन्हें ओष्ठ तेरे मखमल पल भर?


यह संभव ही नहीं कि कर सके गिरा मेरी प्रशंसा तुम्हारी,

क्या घट माटी के, समां सकते सप्त सागर सघन जलधारी!

तथापि सौभाग्य से संवाद हमारा मेरी जीह्वा का उल्लास है,

फिर यह मेरा निश्छल नेम प्रेम का क्यों तेरा उपहास है?


प्रेमामिष पर रिस छाल पहन कर तुम केवल मुझे ठगती हो,

अपने रिस की ज्वलित छाल से मेरी चर्म का दाह करती हो।

मेरे शल्य की शय्या सजाकर मेरे ही अश्रु घी का प्रवाह है,

क्या तुम्हें मेरे विरहाग्नि में क्षार होने की नहीं परवाह है?


एक-दूसरे का कर गहे हम जिस पथ पर प्रथम पथिक थे,

वें अब क्यों यूं मुझ पर हंसते हैं कि तुम तो बहुत रसिक थे!

मेरे जीवन की इस शांत - शुष्क - शीत राह पर मैं एकांत,

तुम्हारे हस्त की ऊष्मता से क्यों वंचित मेरा चर्म क्लांत?


यद्यपि मेरे लिए प्रत्येक पल पर्व सा प्रमोद होता तुम्हारे संग,

परंतु होली की आतुर प्रतिक्षा जब हथेली तुम्हारी लगाए रंग,

स्पर्श करे कोमल कर कपोल मेरा तो प्रतिदिन उत्सव हो,

तुम ही बतलाओ मुझे कहाँ गया त्वचा का रंगीन वैभव खो?


जो तुम दर्पण देखो तो क्षीरसागर सम मुख का दर्शन पाओगी,

उस पर आवृत कुंतल तेरे मानों समुद्र ज्वार का रंजन होगी,

पातक मेरे सारे समाप्त करे समीर विलसित केशों का स्पर्श,

क्या कलुषित कृत्ति की मुक्ति का थोड़ा भी नहीं करती विमर्श?


मैं तो प्रेम रोगी चर्मरोग का, तेरा स्पर्श ही जिसका उपचार है,

मेरे कुष्ठ घांव पर केवल तेरे संपर्क से औषधि का संचार है।

विकराल व्याधि कहाँ संसार में प्रेम रोग से बढ़कर है कहीं,

पाषाण हृदयी तुम, दया का लेप चर्म पर करती हो क्यों नहीं?


यह ना तुम समझो कि मात्र शरीर संसर्ग को हूँ मैं लोलुपचारी,

परंतु तुम्हारी प्रेम आद्रता बिन अजिन हैं अनाद्र बड़ भारी।

विलास वारि बिन सूखती हुई पुष्प वाटिका सम मुरझाऊं मैं,

आलिंगन करने को व्याकुल मेरी बाहों को क्या समझाऊं मैं?


गन्धेंद्रिय का लोभ-क्षोभ-विक्षोभ भी मैं अब तुमसे कहता हूँ-

किस प्रकार प्रेम की असि से अपनी नाक काटकर रहता हूँ।

अपने तन-मन की सुगंध से आखेट करती है व्याध की भांति,

लुक-छिप प्रपंच करके, क्यों बनती अबोध मृगया मेरी ख्याति?


प्राकृतिक क्या कम है जो उसपर भी इत्र लगाकर आती हो,

गमकती हुई बगिया के कुसुमित पुष्पों को भी लजाती हो।

चंपा से भी बढ़कर गुण तेरे हैं तीन- रंग, रूप और वास,

अवगुण भी क्यों और बढ़ाती है अलिंद नाक को कर उदास?


भुंजग मेरी नाक हो, चंदन सम शीतल-सुगंधित तेरी काया,

गंध के आकर्षण से सुध- बुध खो कर इर्द- गिर्द भरमाया,

सर्पों की संगत से नहीं गंधराज मलय विषमय होता है,

कहो, किस कारण घ्राण मेरा यह सौरभ अवसर खोता है?


तेरी जावक अलंकृत हथेलियों की सुरभि का मैं प्रशंसक,

दुग्ध सम श्वेत हस्त पर ज्यों छाई अरुणमयी केसर की गमक।

क्यों निरर्थक अन्वेषण करना मेंहदी मध्य स्वयं का नाम,

जब ना जाने क्यों इनका सुवास ही मेरी नासिका प्रति वाम?


अब तो अत्यंत दीर्घायु हो गया तुम्हारी विरक्ति का हेमंत,

सौरभित श्वास ही तुम्हारी ला सकती है घ्राणेंद्रिय का वसंत।

तुम्हारी प्राणवायु ही जिस रम्य ऋतु का है त्रिविध समीर,

क्यों नहीं होगा उनके असत पीर से यह भीर शरीर अधीर?


अश्रुजल की स्याही से भरी लेखनी से अंकित यह प्रयोग,

हृदय ही मेरा लेख-पटल, पंच इन्द्रियों का यह वियोग रोग,

मेरे समस्त करण कारण तेरे ही, तू ही तो इनकी स्वामिनी,

क्यों नहीं हरती तुम उदय कर सूर्य सौंदर्य श्री तम यामिनी?




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