प्रतिबिम्ब
हम जिस संसार को सत्य मानते हैं, क्या वो सत्य है अथवा बस एक धोखा? इस पृथ्वी पर रह रहे सभी जीवों का जन्म यहाँ किसी न किसी वज़ह से हुआ है। अगर हम इंसानों की बात करें तो हम सभी एक भौतिक संसार का हिस्सा हैं। अपने काम या उद्देश्य को पूरा करने के लिए लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। आज यदि हम अपने आस पास ध्यान दें तो हम सभी अपने-अपने जीवन में इतने उलझे हुए हैं कि हम अपने आप को ही नहीं पहचानते। अक्सर हम लोभ, अज्ञानता, छल-कपट जैसी चीज़ों में ना चाहते हुए भी शामिल हो जाते हैं। जगत के इस मायाजाल में हम सब फंसे हुए हैं - हम सब माया के अधीन हैं। सच क्या है - यह कोई नहीं जानता।
इस सवाल के विभिन्न संभावित समाधानों में से एक है : अश्वत्थ।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को परिवार के मोह से मुक्त करने के लिए और वैराग्य का मतलब समझाने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में एक उलटे पीपल के पेड़ का वर्णन किया है। वह श्लोक कुछ इस प्रकार है-
श्रीभगवानुवाच -
उर्ध्वमूलमधःशाखमश्र्वत्थं प्राहुरव्ययम् |
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् || १ ||
श्री कृष्ण कहते हैं कि - "एक पीपल का पेड़ है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर और टहनियाँ नीचे की ओर हैं, और जिसके पत्ते वैदिक मंत्र हैं। जो इस पेड़ को जानता है, वह वेदों का ज्ञानी है" । इसी वृक्ष को अश्वत्थ के नाम से जाना जाता है। आपने प्रायः यह देखा होगा कि किस प्रकार पानी के सतह पर नदी किनारे स्थित पेड़ों का प्रतिबिम्ब बनता है जिसमें उनकी डालें नीचे की ओर और जड़ें ऊपर की ओर दिखती हैं। दूसरे शब्दों में, यह सांसारिक जगत का पेड़ केवल आधिकारिक आत्मा के वास्तविक पेड़ का प्रतिबिम्ब है।
भगवान बताते हैं कि यह सांसारिक जगत आत्मा के लिए एक विशाल अश्वत्थ वृक्ष की तरह है। इसकी जड़ें ऊपर की ओर (ऊर्ध्व-मूलं) जाती हैं, जो भगवान से उत्पन्न होती हैं। इस पेड़ का तना और इसकी शाखाएँ नीचे फैल रही हैं (अधः-शाखम) जो इस सांसारिक जगत के विभिन्न निवासों के जीवों को समाहित करती हैं। इसके पत्ते वैदिक मंत्र (छंदांसि) हैं, जो अनुष्ठान, समारोह और इनका प्रतिफल वर्णित करते हैं। इस रीति से आत्मा स्वर्गीय निवासों तक उत्कर्ष कर सकती है और स्वर्ग का आनंद ले सकती है, लेकिन आखिरकार, जब प्रतिफल समाप्त हो जाता है, उन्हें पृथ्वी पर वापस आना होता है। अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते आत्माओं के सांसारिक अस्तित्व को पोषित करते हैं और जीवन और मृत्यु के निरंतर चक्र को बनाए रखते हैं। इस प्रणाली के कारण, आत्माओं द्वारा "शुरू और समाप्ति" का अनुभव नहीं होता है। जैसे समुद्रों से पानी वाष्पित होकर मेघ बनाता है और पृथ्वी पर वर्षा करता है, जो फिर नदियों का निर्माण करता है, और आखिरकार समुद्रों में वापस बह जाता है - उसी तरह, जीवन और मृत्यु का चक्र भी निरंतर है।
इस सांसारिक जगत के जाल की यहाँ एक पीपल के पेड़ से तुलना की गई है। जो व्यक्ति कर्मकांड में लगा हुआ है, उसके लिए इस वृक्ष का कोई अंत नहीं है। वह एक डाल से दूसरी डाल, तीसरी डाल, चौथी डाल में भटकता रहता है। जो इस पेड़ से आसक्त है, उसके लिए मुक्ति की कोई संभावनाएं नहीं हैं। इस पेड़ की जड़ें ऊपर की ओर बढ़ती हैं क्योंकि वे वहीं से शुरू होती हैं जहाँ ब्रह्म स्थित होते हैं, इस ब्रह्मांड के सर्वोच्च ग्रह से। वेदों में इस पेड़ का विवरण करने का उद्देश्य यह था कि हमें समझाया जाए कि हम जीवन और मृत्यु के चक्र के परे हैं, और हमें इस पेड़ को काटने की दिशा में काम करना चाहिए। इसी उद्देश्य से, भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो व्यक्ति इस कष्टप्रद माया के पेड़ को समझ सकता है, वह वेदों का ज्ञानी है - यानी वेदवित् है।
आत्मा का पुनर्जन्म इस बात पर आधारित है कि उसने अपनी पिछली और वर्तमान रूपों में कैसे कर्म किये हैं। यदि उसने धार्मिक जीवन जीया है, तो जन्म लेते समय, वह स्वर्गीय निवासों की ऊर्ध्व शाखाओं में जाता है जो गंधर्वों, देवताओं आदि के स्वर्गीय निवासों को दर्शाती हैं। यदि किसी आत्मा ने अपने आप को पापकर्मों में शामिल किया है, तो अगले जन्म में वह नीचे की शाखाओं में गिर जाता है। मानव जीवन के संदर्भ में, इंद्रिय विषय और हमारी इच्छाएं इस संसारिक वृक्ष की फूलों की भांति है। इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए, जीव संयम करता है। लेकिन ये इच्छाएँ अनंत हैं और बढ़ती रहती है। वे इस वृक्ष को पोषण प्रदान करती हैं और इसके असीमित विस्तार का कारण बनती हैं। आखिरकार, आत्मा इस सांसारिक चेतना के इस जाल में और ज्यादा उलझ जाती है।
इस पेड़ का वास्तविक रूप इस दुनिया में नहीं देखा जा सकता है, न इसकी आरंभिकता, न ही इसका अंत, और न ही इसका सतत् अस्तित्व। केवल इसकी कल्पना की जा सकती है। परंतु इस मज़बूत जड़ों वाले अश्वत्थ वृक्ष को वैराग्य की प्रबल कुल्हाड़ी से काट देना ही सांसारिक मोह से छुटकारा पाने का एकमात्र समाधान है।
इसी प्रतिबिंबित वृक्ष को ध्यान में रखते हुए कर्म करना शायद हमें मुक्ति की दिशा में ले जा सकता है; शायद हमें जीवन के वास्तविक रूप को और इसके मूल उद्देश्य को समझने में सहारा दे सकता है ताकि हम बेफिज़ूल विचारों में अपना समय न गवाएं और शायद हमें भटकते-भटकते हम मिल जाएँ!
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