प्रायश्चित
बिहड़ बन में करते प्रवेश,
पालें मन में भय क्लेश,
ज्यों मनुष्य को भवसागर,
शंका से ना राह उजागर,
हरि नाम का एक अवलंब,
काट करें कठिन कलुष कदंब।
प्रमोह प्रध्वंसी प्रज्जवल प्रज्ञा प्रकाश,
प्रवेग प्रदायी प्राण प्रपंची प्रवास !
बन बहती बोहित का कर्णधार,
चलायमान कर भक्ति रूपी बयार,
विकट मार्ग को करते सुगम,
निरपेक्ष चाहे हो- दक्ष या अधम,
श्रम बिन लगावें निकट तीर,
प्राप्त हो नर को निवास क्षीर!
अजामिल किए ईश-स्मरण,
करते पित-बचनों का अनुसरण,
समित् - कुश एवं फल - फूल,
घास तोड़ और चढ़ वृक्ष स्थूल,
एकत्र कर फिरा घर की ओर,
कुंठित करें कर्ण को कामुक शोर।
लाँघतें हुए मर्यादा की रेखा,
निकट जा कर उसने देखा-
गदाई गहे गणिका, ग्रसित मार,
हंसता, गाता सानंद करता विहार !
दोनों अंगबद्ध, झूमे नशें में,
मोहित देख उन्हें इस दशे में।
मन में कामेच्छा हो उठी जाग्रत,
विकसा विपथ, विस्मृत विप्र व्रत।
"नहीं, यह पाप - अनाचार है।
कैसा उपजा चरित्र विकार है!
नहीं मेरे लिए यह उचित,
पतन पथ पर पुण्य पुंजित !"
- अंतर्मन में यूं करता विलाप,
बहलाए-फुसलाए आप ही आप।
धीर धर्माचारी डरे विधर्म से,
आंखें न उठ मिलें शर्म से।
हाय! नियति आगे सब अधीन है,
गौ हिंसक, सर्प विष हीन है,
वृक्ष निष्फल, सर बिन वारि,
करि कृश, पिपली ले उठा भारी!
शुतुरमुर्ग को सपंख बंधित उड़ान,
और मानव निर्मित करे वायुयान।
अजामिल का परिचय ब्राह्मण,
सब ग्रंथों का किया था अध्य्यन।
वह गणमान्य गुणों का गागर,
श्रेष्ठ चरित्र, नय निपुण, नागर।
मृदु बोल बोले, कहे न मिथ्या,
न बैर किसी से, न ईर्ष्या।
सर्व जीव प्रति करे उपकार,
वृद्ध व अतिथियों को सत्कार।
धर्म-ज्ञान-विवेक से युक्त था!
झूठी प्रतिष्ठा से वह मुक्त था।
कौन न झुका काम के आगे,
गृहस्थ हो या ऋषि-मुनि विरागे।
बड़ा भारी रतिनाथ का प्रभाव,
हरि नाम ही एक फलप्रद दांव।
भले लौट आया वो अपने गेह,
पर काम प्रवेश कर चुका देह।
हटा कर मर्यादा रूपी दृगंचल,
काम-शक्ति दर्शा असीम बल,
निश्चित कर प्रवेश पथ नैन,
चित पर हुआ हावी, बना ऐन।
दिन-रात छाए रहे वही स्मृति,
सदैव विचारें उसी की आकृति।
ज्यों वर्षा को तरसे चातक,
मानो मरु में छांह चाहे चालक,
चंदा की राह ताके ज्यों चकोर,
सूर्यमुखी देखें जैसे सूर्य की ओर।
समय साथ मोह में हुई वृद्धि,
नाश करते गई उसकी सारी सिद्धि।
वेद विमुख, वासना विष्ट विवेक,
वर वेश्या, विषयी विकार व्यतिरेक।
करने को नव नारी का संतोष,
धर्म-पत्नी हुई निराश्रित निर्दोष !
ब्राह्मण कर्मों का कर परित्याग,
हरि पद से भी छोड़ अनुराग,
निषिद्ध कर्मों में रहता लिप्त,
कामान्ध को नहीं हरि सूर्य दिप्त।
विधि-विधान विरुद्ध अनुचित रीत,
पैतृक संपत्ति व्यय कर, द्यूत जीत,
पालन-पोषन, रहन-सहन के ठाट,
धर्नाजन को करता वह लूट-पाट।
यूं बसाया उसने नव संसार,
पुत्र रत्न प्राप्त हुए पांच चार।
दसवीं बार जब वह थी गर्भवती,
साधु संगति गांव से गुजरती।
गांव वालों ने दिखा दिया पाथ,
जहां रहे अजामिल कुल साथ।
द्वार जा यांचे पाक सामग्री,
नारी ने दिया जान अनुग्रही।
कर साधु-संत सहर्ष स्वीकार,
किया उसके कल्याण का विचार,
बचन बोले- "बहन! बहुत धन्यवाद,
हमारी एक सीख करना तुम याद,
कहते हैं दान से हों प्रसन्न,
जो पुत्र तुमको होगा उत्पन्न,
रखना उसका उत्तम नारायण नाम,
देगा तेरे स्वामी को बैकुंठ धाम !"
मान संतों का हितैषी- आशीर्वचन,
किया पुत्र का नारायण नामकरण।
अत्यंत स्नेही कनिष्ठतम के नाते,
मन मोहित सुन उसकी तोतरी बातें।
उसकी क्रिड़ाओं प्रति वह आसक्त,
पुकारे नारायण नाम खाते-पिते वक्त।
उसकी मुस्कान से होवें आनंद,
ज्यों हरि भक्ति पाए संत वृंद।
पुत्र मोह का ऐसा भ्रमजाल,
न छुटे मानों मानस से मराल।
करते इस प्रकार सार-संभार,
बिता समय, मृत्यु आ पहुंची द्वार।
अनभिज्ञ, निकट आया अंत समय,
न किया संसार सुलभ सुकृत संचय।
अगले ही क्षण देखें जन तीन,
रक्त युक्त नेत्र उग्र करुणा हीन।
यम के दूत दिखें अत्यंत विकराल,
भयप्रद बदन, बहु बाहु बिशाल।
पद से शिख तक स्याह ऐन,
मानों बन अवतरित स्वयं रैन।
नख मानों हो कठिन कुलिश,
सिर पर सींग जैसे अमर्ष महीष।
किया वक्ष पर हाड़ का शृंगार,
कर में लिए मृत्यु के हथियार !
सिर पर जब सवार हुई मीच,
पुत्र का ही स्मरण करता नीच।
मोह, आसक्ति और भय के मारे,
आतुर-काल पुत्र नारायण पुकारे।
कथनीय नहीं नीर नयन या नयन नीर,
शरीर से वचन या वचन ही शरीर !
कंपित अधर करें उच्चारित वर्ण चतुर् ,
विष्णुदुत धाए सुन स्वामी नाम मधुर।
दृश्य में ऐसे सुंदर, सहज, मनोहारी,
मानो मुख-मंडल मधुर मिष्ठान भंडारी,
नेत्र पंकज पुष्प पंखुड़ी, मुख दुतिकारी,
नीरधर सम श्याम तन, पीतांबरधारी,
सिर कनक मुकुट की शोभा न्यारी,
शंख, चक्र, गदा, कमल युक्त भुज चारी,
मानो मलिन मदन की सुंदरता सारी,
काया की कांति से हारे तमारी,
अधरो की स्मिता जैसे चंद्र अर्धाकारी,
हैं साक्षात नारायण के यें अनुचारी।
जान कपट रहित, निरापराध बोध,
किया प्राण आखेटक का अवरोध।
"हे ! प्रवीण प्रभाकर पुत्र पठावन,
न हरो इसके प्राण बिन कारण।
नहीं यह तुमसे मृत्यु का पात्र,
जपा हो जिसने नारायण मात्र।
सकुचे सूचक सुन सुर सादेश सुर,
"कौन आप जो रोके गवन यमपुर?
धर्मराज यम का यह क्षेत्राधिकार,
कहो परिचय जो करते सीमा पार।"
सुन वचन विहसे पुरुष रूपी तरुण,
समाधान कर कहते मानों रस करुण।
"हम जगतपति विष्णु के है दास,
नहीं हम खिंचने देंगे इसके श्वास।
छोड़ो इसके प्राण, पाश कर निर्बाध,
किया प्रायश्चित, बाकी कौन अपराध?
जो तुम धर्मराज के दूत नितांत,
तो कह सुनाओ धर्म-निति सिद्धांत।
धर्म क्या और अधर्म क्या ?
दंड की पात्र कौन संख्या ?
किसे दंड देने का क्या प्रावधान,
किस कामी कर्मी को भी सम्मान ?"
कहते यमदूत जान इसे परीक्षा,
यम द्वारा दी गई दक्ष दीक्षा-
"धर्म वह जो संस्तुत वेद द्वारा,
अधर्म को आगम-निगम ने नकारा।
वेद ही ज्ञान सागर, भगवन् साक्षात,
प्रत्येक अक्षर हैं हरिमुख कही बात।
नारायण ही जगन्नाथ, शाश्वत आधार,
सकल संसार सार, परम-पिता,पालनहार।
त्रिलोक स्वामी, सर्वकारण स्वरूप,
भौतिक त्रि-गुण रूपी जन के भूप।
विशाल विश्व विचारक, वैकुंठ नियंता,
निखिल, गोविंद, प्रणत पाल, श्रीकंता।
पुष्कर अक्षि, कोटि काम करें मोहित,
शंशाक शेखर आराध्य, अज अर्चित।
सकल सम्पत हेतु मानवी वेष धारी,
तिय अवतार अमर आवंटा आयुषी वारि।"
नारायण नाम-गुण का कर विवरण,
पुनः दंड संहिता कहते यम के गण-
"भगवान विष्णु द्वारा निश्चित ये साखी,
जिन्होंने सर्व जीव कर्म देख राखी-
समय तीन- वासर, संध्या और निशा,
प्रत्यक्ष जल, थल और दसों दिशा,
अर्क, अनिल, अग्नि, अभ्र अनंत,
अमीकर, अमर, एवं स्वयं भगवंत।
यें जिनके कुकर्मों की करते संस्तुति,
भटके नियत कर्म से कहें जिसे श्रुति।
सकाम काम में जिनके मन अनुरक्त,
पात्र वें, अनुहारी दंड उनको उपयुक्त।
प्रपंच प्रकट प्रत्येक प्राणी कर्मी हैं,
चाहे वे धर्मी अथवा अधर्मी हैं।
जिसने भी धरा पर धरा शरीर,
पराजित पाप से, पाप बड़ा वीर।
इसीलिए हैं सभी जीव दंडनीय,
अपने-अपने कर्म सम विचारणीय।
बड़ा भारी कर्म का विधान,
छोड़े न छुटे, चाहे छुटे प्राण।
सुख-दुख या जीवन मिश्रित,
भौतिक कर्म कों करतें सूचित।
जब होता जीव अक्षम और दीन,
अपनी इन्द्रिय और मन के आधीन,
इच्छाओं में बाध्य, माया का शिकार,
मोह से ग्रसित, मरता वह बारंबार।
ज्यों रेशम कीट बांधे लार-कोश,
जीव को फांसे प्राकृतिक गुण-दोष।
हरि भक्ति और सत्संगति के प्रभाव,
लगे भवसागर तट पे शरणागत नांव।
विषय भोग में अजामिल सम्मिलित,
पाप-पूर्ण, न किया कभी प्रायश्चित।
देने को पापी जीवन का परिणाम,
लेकर जाएंगे इसे यमराज के धाम।"
यमदूत-वचन सधैर्य सुनने के पश्चात,
बोले वाक्पटु विष्णुदूत पुलकित गात-
"तुम धार्मिक सिद्धांत के पालनकारी,
निष्पाप को दंड देना- है भूल भारी।
शासक का धर्म प्रजा का रक्षण,
सम दृष्टि से न्यायोचित भरण-पोषण।
निर्दोष साथ जो हो पक्षपाती व्यवहार,
कहां वें जाएं, किससे करें गुहार।
जान स्वामी, कर संरक्षण का विश्वास,
किया आत्मसमर्पण, बना हो जो दास,
किया निश्छल श्रद्धा सहित प्रायश्चित,
कैसा उसको यह न्याय, कर दंडित?
अजामिल धो चुका अपने सारे पाप,
नारायण नाम जप, किया पश्चाताप।
कहते ऐसा समस्त शास्त्र-पुराण,
यदि कोई अनायास ही बोले भगवान,
अपराध रहित होकर नाम उच्चारे,
तो भी हो पवित्र, मिटे पातक सारे।
दीप की एक किरण मिटाती अंधियारा,
डूबते को जैसे तिनके का सहारा,
भागे ज्यों वनचर सब सुन सिंहनाद,
वर्षा हरती चातक के समस्त विषाद।
पूर्व में भी अजामिल ने कई बार,
नारायण नाम अनायास की पुकार।
यद्यपि वह पुत्र को आवाज देता,
फिर भी 'ना, रा, य, ण' स्वर लेता।
इतना ही पाप प्रति पर्याप्त प्रायश्चित,
निश्कलंक हुआ लाखों जन्म सहित।
प्रायश्चित की यह सर्वश्रेष्ठ विधि है,
कर्मकांड से बढ़कर भक्ति निधि है।
प्रेम सुलभ नारायण नाम का कीर्तन,
छुड़ाए संसार में जन्म-मृत्यु वर्तन।
ईश नाम, यश व लीला का बखान,
जान ज्ञान, दान, ध्यान से महान।
उड़ाएं धूल संचित सरिस समीर,
करता सोच सहित स्वच्छ शरीर।
जैसे सूखी घास राख करे पावक,
चाहे कारण वृद्ध या अबोध बालक।
जैसे रोगी पर प्रभाव करे दवाई,
भूलवश या बलपूर्वक हो खिलाई।
असहाय हो कर किया उच्चारण,
पापमय जीवन से मुक्त उसी क्षण।
कर नारायण का पुकार एकमात्र,
नहीं रहा अजामिल दंड का पात्र।
अब तुम लौट जाओ स्वामी पास,
बिन किए प्राण लेने का प्रयास।"
कर यमदूत से तर्क इस प्रकार,
स्थापित कर विष्णु भक्ति विचार,
किया अजामिल के प्राण स्वच्छंद
खोल यमदूत मृत्यु पाश के फंद।
लौटे दूत यमलोक बिना लिए प्राण,
घटित घटनाओं का किया बखान।
"हे नारायण क्षमा करें इनके अपराध,
नहीं समझें यें धर्म सिद्धांत अगाध।
सुनो सेवक सदा सुखप्रद सदुपदेश,
जानो भगवान नारायण को सर्वेश।
उनके भक्त निकट ना तुम जाना,
जे मधुप माधव पद पंकज समाना।
उन्हीं दुराचारियों को लाओ मेरे पास,
नहीं जिन्हें हरि नाम कीर्तन सुपास।"
होकर पाश मुक्त लौटी उसकी चेतना,
कहना चाहे कुछ शीश झुका अपना,
गहे विष्णुदूत के चरण, सौभाग्य जान,
इतने में सहसा हुए विष्णुदूत अंतर्धान।
सुना जो दूतों के मध्य गोपनीय संवाद,
विगत पाप कर्मों को करता याद,
पछताएं कि क्यों किए ऐसे कर्म-
"त्याग ब्राह्मण सा पद किया अधर्म।
वेश्यावृत्ति रत, कुल किया लज्जित,
परस्त्री हेतु छोड़ी भार्या सुसज्जित।
छोड़ा माता-पिता को बिन आश्रय,
धिक्कार मुझे! मेरे कृत ऐसे जघन्य।
नरक यातनाएं को कम कल्प काल,
सहने चाहिए विपुल विपदाएं विकराल।
जो नहीं की होती पहले भक्ति,
मरणासन्न कैसे मिलती उच्चारण शक्ति।
तेरी भक्ति का प्रभाव यह वैकुंठपति!
आतुर काल जो दी ऐसी मति।
मैं तुम्हारे बिना हूं साक्षात पाप,
परंतु अब करता हूं तुमसे पश्चाताप।
जो यह मिला मुझे दूसरा अवसर,
पद अनुरागी, इंद्रियों को वश कर।
नहीं गिरूंगा पुनः अघ अंधकार में,
नहीं फंसुंगा फिर माया शिकार में।
भौतिक इच्छाओं के आकर्षण त्याग,
संगति वश नारायण नाम कीर्तन लाग,
हटा 'मैं' और 'मेरा' का मिथ्या ज्ञान,
छोड़ दूंगा शरीर से अपनी पहचान।"
विष्णुदुत क्षणिक सत्संगति के कारण,
अजामिल से विलग भौतिक आकर्षण।
छोड़ समस्त सांसारिक संबंधों का भार
सारे माया बंधन मुक्त गया हरिद्वार।
देव सदन में लेकर सानंद स्थान,
सेवार्थ मन भक्तियोग की विधि ठान,
ऐन्द्रिक इच्छाओं से करके विहीन,
ईश रूप चिंतन में हुआ तल्लीन।
ईश्वर स्वरूप जब हुई बुद्धि स्थिर,
स्थापित हुए हरि उसके मन मंदिर।
नयन खोल विष्णुदूतों को पाया,
देख दृश्य, हर्ष नहीं हृदय समाया।
त्याग पंचतत्व का बना वह शरीर,
गया दूत संग अजामिल धाम क्षीर !
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