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Writer's pictureMrityunjay Kashyap

प्रेम, भक्ति और समर्पण

प्रेम, भक्ति और समर्पण- क्या आप इन तीनों को एकार्थी महसूस करते हैं अथवा क्या यें एक दूसरे के पूरक है? क्या एक का अस्तित्व बाकी दो के अस्तित्व की पुष्टि करता है या तीनों का अस्तित्व स्वतंत्र है? क्या इन तीनों में यह समानता है कि अपने 'आखेट' को बंदी बना लेता है अथवा 'आखेट' शब्द का प्रयोग ही अनुचित है? इन प्रश्नों के मेरे और आपके उत्तर बहुत भिन्न हो सकते हैं एवं विशाल लंबी चर्चाओं का विषय वस्तु भी, परंतु क्या आप इतिहास के पृष्ठों से ऐसी कोई घटना का स्मरण कर पा रहे हैं जहां आपको इन प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर मिलते? संभवतः आप जैसे विद्वान पाठकों को बहुत सी ऐसी कथाएं याद होंगी परंतु मुझे तो एक ही कथा का स्मरण हो पाता है महाकवि तुलसीदास जी द्वारा कृत श्रीरामचरितमानस में केवट प्रसंग। आज का लेख उसी प्रसंग का पुर्नलोकन है।

माता कैकई वाला राजा दशरथ से मांगे वरदान ओके कारणवश श्रीराम वन मार्ग पर अग्रसर हैं शृंगवेरपुर से वह अपने सखा निषादराज गुह भार्या जानकी और भ्राता लक्ष्मण के साथ प्रस्थान कर गंगा तट पर खड़े हैं। आगे की कथा कुछ इस प्रकार है-

मागी नाव न केवटु आना । कहइ तुहार मरमु मैं जाना ॥

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई । मानुष करिन मूिर कछु अहई ॥

छुअत सिला भइ नारि सुहाई । पाहन ते न काठ कठिनाई ॥

श्री राम गंगा पार करने के लिए केवट से नाव मांगते हैं परंतु वह राम को नाव पर चढ़ाने को तैयार नहीं है। प्रथम दृष्टा में तो यह श्रीराम का अपमान मालूम होता है और इसी कारण लक्ष्मण क्रोधित भी होते हैं (आगे की चौपाइयों में इसका संकेत है)। क्या आप यह अनुमान भी कर सकते हैं कि कोई केवट जैसा सामान्य मनुष्य श्री राम की विनती को ठुकरा दे और यह कह दे कि मैं तुम्हारा मर्म (रहस्य) जानता हूं। आपके चरण कमलों की धूल के बारे में सब कहते हैं कि यह कुछ ऐसी जड़ी बूटी है जो किसी निर्जीव को सजीव मनुष्य बना देती है। केवट प्रभु से अपना प्रेम प्रकट करने की भूमिका बांध रहा है। वह आगे कहता है इन्हीं चरणों की धूल से आपने एक पत्थर की शिला को सुंदर नारी बना दिया। अब काट (अर्थात लकड़ी) पत्थर से कठोर तो नहीं होती है। केवट यहां मिथिला में घटित अहिल्या तारण प्रसंग की ओर संकेत कर रहा है। अहिल्या गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्मांड की सबसे सुंदर स्त्री थी। देवराज इन्द्र के छल पूर्ण कृत के कारण गौतम ऋषि ने उन्हें पत्थर बनने का श्राप दिया था। बाद में जब विश्वामित्र श्री राम और लक्ष्मण सहित मिथिलापुरी को आ रहे थे तभी राम ने पत्थर को अपने चरणों के स्पर्श से वापस स्त्री रूप दिया।

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥

भूमिका समाप्त कर केवट अपनी समस्या व्यक्त करता है कि क्यों वह मना कर रहा है। वह कहता है उसी प्रकार मेरी नाव मुनि की गृहणी हो जाएगी। मेरी नाव बदल जाएगी तो बाठ (रास्ता) रुक जाएगा और मेरी नाव के उनमें से विलुप्त होने से मेरी रोज ही चली जाएगी जिस प्रकार से एक भक्त भगवान के सामने अपनी हर व्यथा को बहुत विस्तार से बढ़ा चढ़ाकर बताता है जैसे कि सर्वज्ञ को कुछ ज्ञान ही ना हो वैसे ही केवट अपनी समस्या का विस्तार कुछ यूं करता है-

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥

कवितावली में भी कुछ इसी प्रकार कहा गया है-

पात भरी सहरी सकल सुत बारे बारे,

केवट की जाति कछु बेद ना पढ़ाइहौं।

सब परिवार मेरो याही लागि, राजाजू!

हौं दीन बित्तहीन कैसे दूसरी गढ़ाइहौं?॥

हे प्रभु मैं इसी नाव से सारे परिवार का पालन पोषण करता हूं। मुझे और कोई काम नहीं आता। अगर आप इस नाव पर चढ़े और इसका लोप हो गया तो मेरी रोजी मारी जाएगी और बड़ी समस्या होगी। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। मैं जाति का केवट हूं एवं मुझे वेद भी नहीं आता। मैं अत्यंत ही दरिद्र हूं, मैं दूसरी नाव किस प्रकार से बनाऊंगा। मेरा पूरा परिवार इसी नाव के सहारे हैं।

परसे पगधूरि तरै तरनी, घरनी घर क्यों समुभाइहौं जू?॥

तुलसी अवलंब न और कछू, लरिका केहि भाँति जिनाइहौं जू।

कि नाव अगर ब्राह्मणी स्त्री बन गई तो यह तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। मैं जाति का मल्लाह और स्त्री ब्राह्मणी! दूसरा मैं घर जाकर अपनी पत्नी को क्या समझाउँगा। मुझे और कुछ अभिलंब (सहारा) नहीं है। घर में एक आदमी बढ़ जाएगा और रोजी-रोटी बंद, तो फिर लड़कों को किस तरह जिलाऊंगा?

प्रभु पूछते हैं तो फिर हम पार कैसे जाएं इस पर केवट उन्हें दो विकल्प बतलाता है पहला- "एहि घाट ते थोरिक दरि अहै कटिलौं जलथाह देखाइहौं जू।"अर्थात इस घाट से थोड़ी दूर पर कमर तक पानी है वह मैं आपको दिखा देता हूं आप वहां से पार कर जाइएगा यह विकल्प श्रीराम विलंब होने की शंका से अस्वीकार कर देते हैं तो फिर केवट कवितावली में कहता है- रावरे दोष न पायँन को, पगधूरि को भूरि प्रभाउ महा है। स्त्री बना देने में ना ।तो आपका दोष है, ना आपके पैरों का। पैरों की धूल का ही बड़ा प्रभाव है जिसके कारण निर्जीव वस्तु सजीव स्त्री में परिवर्तित हो जाती है। केवट भली-भांति समझता है कि प्रभु के पास मेरे अलावा कोई और विकल्प बचा नहीं है तो शर्त लगा कर क्या रहा हजौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥... यदि प्रभु अवश्य ही पार जाना चाहते हैं तो मुझे अपने चरण कमलों को पखाड़ने के लिए कहे क्योंकि सारी समस्या आपके चरणों की धूल के कारण ही है, तो मैं उसे धो दूंगा और तब आप मेरी नाव पर चढ़कर पार हो जाएंगे।

इस पर प्रभु कुछ नहीं कहते। केवट ने तो सोचा था कि उसका उद्देश्य तुरंत पूरा हो जाएगा पर राम कुछ कहते ही नहीं। तभी वह अनुमान करता है कि शायद इनके पास नाव की उतराई ना हो इसीलिए वें संकोच कर रहे हैं। वह कहता है-

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।

मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥

मैं आपके चरणों को धोकर नाव पर चढ़ाउँगा, हे नाथ! मुझे इसके लिए उतराई नहीं चाहिए। मैं आपकी और राजा दशरथ जी की शपथ खाकर सच कहता हूं। केवट की बात को सुनकर लक्ष्मण तमतमा जाते हैं और वह धनुष बाण उठा लेते हैं कि केवट प्रभु से फिर कहता है- ‌ " बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥" कवितावली में भी ऐसी पंक्ति मिलती है- "वरु मारिये मोहिं, विना पग धोये हैं। नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू॥"- भले ही आप मुझे मार डालिए परंतु जब तक मैं आपके पैर नहीं पखार लेता तब तक मैं हे कृपानाथ आपको पार नहीं उतारूंगा। केवट बार-बार अपनी शर्त दोहराए जा रहा है जिस पर लक्ष्मण जी क्रोधित हो उठे हैं।

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।

बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥

केवट के इन अटपटे वचनों को सुनकर प्रभु मुस्कुरा दिए। कौन से अटपटे वचन? पहला तो नाव का स्त्री बनने वाली बात। एक बार पत्थर के अहिल्या बनने का तो कारण था, उसके बाद ना जाने कितने पत्थर प्रभु के पग नीचे आए हैं वे तो स्त्री नहीं बने। फिर दूसरी केवट की विचित्र शर्त और उस पर उसका निरंतर हट किए जाना। तीसरी और अंतिम- किसी बात की सच्चाई साबित करने के लिए अक्सर लोग अपने या अपने पिता की सौगंध खाते हैं, ना कि सामने वाले के। इन्हीं प्रेम से लिपटी हूए केवट के अटपटे वचनों को सुनकर करुणा के धाम श्री राम हसकर जानकी और लक्ष्मण की ओर देखते हैं और फिर आज्ञा करते हैं-

कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥

बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥

कृपासिंधु मुस्कुरा कर बोले- वही करो जिससे तुम्हारी नाव ना जाए पर इतने पर केवट कुछ नहीं करता है। तो प्रभु केवट का प्रेम समझ कर पुनः स्पष्ट होकर कहते हैं। जल्दी पानी लाओ और पैर पखारो। विलंब होता है जल्दी पार उतार दो।

जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥

जिसके नाम का एक बार स्मरण कर मनुष्य भवसागर पार हो जाता है और जिन्होंने संसार को अपने तीन पगो में छोटा कर दिया था, आज उन्हें गंगा पार जाने के लिए एक केवट से निहोरा (प्रार्थना) करना पड़ रहा है। प्रभु अपने भक्तों के लिए क्या नहीं करते। केवट और श्रीराम का उपर्युक्त संवाद यही प्रदर्शित करता है।

केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥

अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥

केवट प्रभु की आज्ञा की ही प्रतीक्षा में था। जैसे ही उसने आज्ञा पाई, एक छोटे कठौते में गंगा जी का जल भर लाया। अत्यंत आनंद से उसमें अनुराग उमड़ रहा है और वह प्रभु के चरण कमलों को पखारने लगा। कवितावली में कुछ विस्तार है-

प्रभु रुख पाइकै बोलाइ बाल घरनिहिँ ,

बंदि कै चरन चहूँ दिसि बैठे घेरि घेरि।

छोटो सो कठौता भरि आनि पानी गंगाजू को,

धोइ पाँँय पीयत पुनीत बारि फेरि फेरि॥

तुलसी सराहैं ताको भाग सानुराग सुर,

बरषैं सुमन जय जय कहैं टेरि टेरि।।

बिबुध-सनेह-सानी बानी असयानी सुनी,

हँसे राघौ जानकी लषन तन हेरि हेरि।।

केवट ने प्रभु का रुख पाकर पूरे कुटुंब को बुला लिया। सब प्रभु के चरणों की वंदना कर बार-बार उनको धोते हैं और उस जल को बार-बार पी रहे हैं। यह देखकर देवता केवट के भाग्य की प्रशंसा कर सिहाने लगे कि इसके समान कोई पुण्यात्मा नहीं है। केवट बड़ी चालाकी से प्रेम और भक्ति रस से सनी हुई बातें कह-कहकर अपना हट पूरा करा लेता है ना केवल स्वयं बल्कि पूरे परिवार, स्त्री, बच्चे और पितरों को भी मुक्ति का वर दिलवा देता है। इसी कारण वह शुरू से ही पैरों को पखारना चाह रहा था।

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥

केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥

पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥

कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥

गंगा पार उतर कर प्रभु राम सीता, लक्ष्मण और निषाद राज गुह के साथ रेत पर खड़े हो जाते हैं। तब केवट उन्हें दंडवत प्रणाम करता है‌।‌ प्रभु को संकोच हुआ इसको कुछ नहीं दिया। तब जानकी प्रभु के हृदय की बात को समझ गई और उन्होंने आनंद भरे मन से मणिरंजीत अंगूठी उतारी। कृपाल प्रभु ने कहा- उतराई ले लो। यह सुनकर केवट व्याकुल हो गया। व्याकुल होने के दो कारण हो सकते हैं। पहला तो उसने श्री राम और राजा दशरथ जी की सौगंध खाई थी कि वह उतराई नहीं लेगा। दूसरा कि किसी कार्य के बदले एक ही पुरस्कार अथवा फल पाया जा सकता है, अब यदि वह अंगूठी स्वीकार ले तो पहले उसने जो पुण्य पाए थे, पितरों को मुक्त करा लिया था उसके बदले अंगूठी जैसी सांसारिक वस्तुओं बहुत तुच्छ उतराई होगी। वह इसीलिए कहता है-

नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥

हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया। मेरे दोष, दुख और दरिद्रता की आग मिट गई। मैंने बहुत समय से मजदूरी की, परंतु आज जाकर विधाता ने भरपूर वेतन दिया है। जब मनुष्य को लगे उसके पास बहुत कम है, ईश्वर ने उसे कुछ नहीं दिया तब उसे स्वयं से नीचे देखना चाहिए और समझना चाहिए कि स्वयं से भी गरीब लोग हैं और मैं तो फिर भी ठीक हूं। उसी प्रकार बड़े होने का घमंड हो जाए तो अपने से आगे देखना चाहिए कि मेरा तो कोई अस्तित्व ही नहीं है, मैं किस बात का अहंकार करूं।

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥

फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥

हे नाथ! हे दीनदयाल! आप के अनुग्रह से अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार जो कुछ आप देंगे, वह प्रसाद मैं सिर धर कर लूंगा। पहले तो केवट संतोष का परिचय देते हुए विनय करता है कि अब उसे कुछ नहीं चाहिए। सोचिए ईश्वर आपके सामने हो और आप कहें मुझे कुछ नहीं चाहिए यही सच्ची भक्ति प्रेम और समर्पण है। फिर राम, लक्ष्मण, सीता के बार बार कहने पर वह लौटते वक्त प्रसाद रूप में लेने को राजी हो जाता है। इसके पुनः मैं दो कारण समझता हूं। पहला प्रभु की बात को बाद के लिए टाल कर दुविधा मुक्त होना चाहता है। अथवा दूसरा कि वह प्रभु के दर्शन से संतुष्ट नहीं हुआ है और चाहता है कि लौटते समय भी वें यहीं से जावे जिससे कि वह उनके दर्शन पुनः कर सके।

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।

बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥

राम सुमंत्र को विदा कर बहुत दुखी थे और जब वे केवट की अट-पटी बातों से हंस दिए तो लक्ष्मण केवट का उद्देश्य समझकर उस पर प्रसन्न हुए। तीनों के बहुत अनुरोध पर भी केवट कुछ नहीं लेता है तो करुणा के धाम प्रभु रघुनंदन उसे भक्ति का निर्मल वरदान देकर विदा कर देते हैं।





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