बंद आँखें तो इक बहाना हैं
नाम से क्यों वुजूद पाना है,
मंजिल-ए-कब्र ही तो जाना है।
लिख कलाम-ओ-ग़ज़ल उसूल-ए-ग़म,
इस ख़ुशी का कहाँ ठिकाना है।
मैं हुजूम-ए-मलाल में तन्हा,
बैर यह वक़्त का पुराना है।
देर से नींद अब नहीं खुलती,
बंद आँखें तो इक बहाना हैं।
मत यकीं कर दिल-ए-हज़ीं पर तू,
इसका आह-ओ-बुका ही गाना है।
देख कैसे पतंग उड़ती है,
क्यों परिंदा तुझे जलाना हैं?
तुम सवाल-ओ-जवाब मत करना,
यह क़ज़ा-ए-ख़ुदा का ठाना है।
बात छोटी सी मुद्द’आ समझो,
कौन ‘मुतरिब’ का क़ल्ब जाना है?
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