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भोपाल जंक्शन

Updated: Dec 31, 2023

सब ठीक हो जाएगा, भोपाल जंक्शन आने वाला है।

The Railway Men नामक यह मीनी सिरीज़ 1984 के भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभुमि पर बनी है। भोपाल गैस त्रासदी को विश्व की सबसे भयानक औद्योगिक आपदा माना जाता है। कोई भी त्रासदी मनुष्य के अंदर के अनेक गुणों को उजागर करने का अवसर देती है। श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास कहते है-

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।

धीरज, धर्म, मित्र और नारी की परिक्षा आपदा काल में होती है। सीरीज़ बड़ी ख़ूबसूरती से यह दर्शा पाने में सफल रही है। आपदा काल में भी लोगों ने अपना धर्म और धीरज नहीं त्यागा। स्टेशनमास्टर इफ्तेकार सिद्दकी, प्रसाद, जीएम रति पाण्डेय, राजेश्वरी जी, इमाद रिआज़ या ट्रेन का गार्ड, बेनेडिक्ट, कमरुद्दीन, पत्रकार कुमावत- जैसे ना जाने कितने ही लोगों ने इस आपदा काल में अपना धर्म - अपना कर्तव्य निभाते हुए योगदान दिए।

क्या ऐसा कोई था जिसका यह कर्तव्य नहीं बनता था, फिर भी उसने मनुष्यता के नाते सहायता की? एक्सप्रेस बैंडिट जो लूट के मकसद से जंकशन आया था, हवलदार बनकर आखिर सबकी मदद क्यों करने लगता है। उत्तर दिया जा सकता है। मेरा दृष्टिकोण कहता है - वह सिर्फ अपनी मदद करना चाह रहा था और इस दौरान यह उसकी मजबूरी थी कि वह दुसरों की भी मदद करे। यह आक्षेप हो सकता है, इससे मैं इनकार नहीं करता हूँ। परंतु यह मेरा दृष्टिकोण है। कोई भी दृष्टिकोण अस्पष्ट हो सकता है, पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकता है, अकारण हो सकता है परंतु तब भी वह दृष्टिकोण रहेगा तो अवश्य ही। विपक्ष में पड़ा एक भी मत, उस निर्णय से सर्वानुमति का अलंकार छीन लेता है । (A single vote of dissent causes the decision to not be unanimous)। यह किरदार ऐसा है जो विकसित हुआ है। क्योंकि मेरा उद्देश्य कहानी उद्घाटन करना नहीं है, मैं कहानी का उद्‌घाटन किए बिना इसकी ओर इशारा ही कर सकता हूँ।

मुझे जो किरदार विशिष्ट भाया वह था गोरखपुर एक्सप्रेस का गार्ड जिसके नाम का जिक्र तक नहीं हुआ। दया और कृपा का मुझे जो दृश्य देखने मिला उस ने ही मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया है। जहाँ एक तरफ "बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है।"-अहंकार का प्रतिनिधित्व करता है तो "गाड़ी भोपाल स्टेशन पर रुकने वाली है, वहाँ आरपीएफ तुम्हारा स्वागत करेगी।"-परोपकार और नम्रता का वाहक बनी है। मैंने तृतीय एपिसोड बार-बार रिवाइंड करके देखा है ताकि मैं गार्ड का नाम पता कर सकूँ। मैं आश्वस्त तो नहीं हूँ, पर एक संभावित नाम मुझे अवश्य मिला। आपको भी मिला हो, अथवा जानना हो तो मुझे उत्तर किजिएगा। ऐसे लोगों की सराहना करना क्यों जरूरी है? उनके लिए नहीं हैं। उनको सराहना चाहिए होती तो वो भी अपने किए का ढोल पिटते और दूसरों को नीचा दिखाते। वे तो निस्वार्थ - निश्छल भाव से बिना किसी आशा - अभिलाषा - आकांक्षा से दया- कृपा - सहायता करते है। इसके पीछे एक छोटा-सा दर्शन है। क्या हम इतने समर्थ है कि किसी की सहायता कर सके। यदि इसका उत्तर आप हाँ में देते है, तो अपना हृदय कठोर कर लिजिए। क्योंकि यदि आप यह मानते है कि आपने किसी के लिए कुछ किया है, तो ना चाहकर भी आपको उससे अपेक्षाएँ हो जाएँगी। जब वे अपेक्षाएँ पूरी नहीं होंगी तो आपका हृदय विदीर्णता से टूट जाएगा। इसीलिए सिद्धांत है - "नेकी कर दरियां में डाल"

पैगम्बर मुहम्मद साहब का भी कथन हैं-

“…A man who gives in charity and hides it, such that his left hand does not know what his right hand gives in charity; and a man who remembered Allah in private and so his eyes shed tears.” (Abu Hurairah & collected in Saheeh al-Bukhari (English trans.) vol.1, p.356, no.629 & Saheeh Muslim (English trans.) vol.2, p.493, no.2248)

मैं यहाँ एक ऐसा उदाहरण देता हूँ जो विख्यात नहीं कुख्यात है। श्रीरामचरितमानस की पात्रा मंथरा। मंथरा रानी कैकेयी की दासी है जो उन्हें भड़का कर श्रीराम को वनवास दिलवाती है। सही कहा न मैंने। थोड़ा दूसरी तरफ की भी बात करता हूँ।

मंथरा का क्या लेना-देना कि राजा कौन बनता है? उसका स्वार्थ क्या है? एक उत्तर मुझे अपेक्षित है। अगर भरत राजा बनेंगे तो मंथरा राजमाता की प्रमुख दासी बन जाएगी। वह इसका प्रतिउत्तर स्वयं मानस में देती है।

करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥

कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी ॥

भावार्थ:-विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे परवश कर दिया! (दूसरे को क्या दोष) जो बोया सो काटती हूँ, दिया सो पाती हूँ। कोई भी राजा हो, हमारी क्या हानि है? दासी छोड़कर क्या अब मैं रानी होऊँगी!

प्रमुख दासी - हंसी नहीं आती सुनकर। दासी तो वह रहती ही चाहे कोई राजा हो। उसका धर्म ही दासत्व है। राम राजा होते तो भी वह दासी ही रहती। राजमहल में एक बूढ़ी दासी को शासक से कैसा मोह। वस्तुतः तो वह मंदबुद्धि देवताओं की रणनीति का केवल मोहरा थी। उसने जनकल्याण के लिए यश त्यागा ही, लोक श्राप सिर पर लिया। आज भी मंथरा वह दुष्ट है जो आग लगाती है। उसका त्याग नहीं दिखा।

नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।

अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।

मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।

दास की बात आयी है तो एक और उदाहरण मानस से ही लेता हूँ- पवनपुत्र हनुमान्। वें तो अपना परिचय ही "राम दूत मैं मातु जानकी।" कहकर देते हैं। सुंदरकाण्ड में हनुमान द्वारा समुद्र पार जाना, सीता अन्वेषण करना, लंका दहण करना - सभी हनुमान् की ही शौर्य युक्त वीर गाथा है। पर वह यह श्रेय स्वीकार नहीं करते है। उनका कहना की वो एक अधम - मूर्ख वानर मात्र है जिसका कोई न कुल है, न संस्कार, न बुद्धि, न बल। वह यह सब करने में इसीलिए सक्षम हुए क्योंकि राम कृपा है।

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥

प्रात लेई जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥

भला कहिये, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ ? [जाति का] चञ्चल वानर हूँ और सब प्रकारसे नीच हूँ। प्रातःकाल जो हमलोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले ॥

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर । कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥

यह सब तो हे श्रीरघुनाथजी ! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है।

हनुमान् नम्रता के पर्याय है। उनका जीवन आदर्श है कि किस प्रकार दासत्व में भी प्रेम और सम्मान है। यह तो हनुमान् की नम्रता है जो वह अपने तेज को झूठलाते है।

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल । प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥

हे माता ! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परन्तु प्रभुके प्रतापसे बहुत छोटा सर्प भी गरुड़को खा सकता है (अत्यन्त निर्बल भी महान् बलवान को मार सकता है) ॥

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।

तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥

जिनके लेशमात्र बलसे तुमने समस्त चराचर जगत्को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नीको तुम [चोरीसे] हर लाये हो, मैं उन्हींका दूत हूँ ॥

परंतु यहाँ राम ने भी उनकी नम्रता का पुरस्कार उन्हें दिया है। इसीलिए वें मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। हनुमान को यह - सराहना अथवा उल्लेख नहीं चाहिए - उनको आवश्यकता ही नहीं हैं। उनको केवल प्रभु का स्नेह, आशीष, अपनत्व और उनकी कल्याणमयी शरण रूपी छाँव की आश है। इसके अतिरिक्त उन्हें कोई लालच नहीं। फिर भी राम सबके समक्ष उनकी प्रशंसा करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते है-

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥

प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥

[भगवान् कहने लगे] हे हनुमान् ! सुन; तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदलेमें उपकार) तो क्या करूँ, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता ॥

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥

पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥

हे पुत्र ! सुन; मैंने मनमें [खूब] विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देवताओंके रक्षक प्रभु बार- बार हनुमान्जीको देख रहे हैं। नेत्रोंमें प्रेमाश्रुओंका जल भरा है और शरीर अत्यन्त पुलकित है ॥ ४॥

यह उनके कुशल नेतृत्व की समझ है। एक नेता ऐसा होना चाहिए जो उसके समर्थकों का न केवल आदर करें, उनका आत्मविश्वास और आत्मसम्मान सुनिश्चित करे, परंतु साथ ही सभी के समक्ष उसके उत्कृष्ठ योगदान की सराहना करके सभी का मनोबल बढ़ावे। समाज और आने वाली पीढ़ी के समक्ष एक मानक चरित्र का प्रदर्शन स्थापित करें। संसार में बुराई की कमी नहीं है, और अधिक बुराई क्या की जाए। इसीलिए अच्छे - सच्चे लोगों की सराहना और उनका प्रोत्साहन समाज हेतु आवश्यक है।

The Railway Men में यह नम्रता और नेतृत्व का भाव मुझे देखने मिला। सबने सबके लिए बहुत किया, फिर भी किसी को कोई घमंड नहीं है। वस्तुतः नम्रता मानव का गहना है। और घमंड उसका कलंक। आप कितने ही श्रेष्ठ हों (जिसकी घोषणा भी आप स्वयं ही करते फिरते हैं।) वह व्यर्थ है अगर समाज को आपकी इस कथित 'श्रेष्ठता' का लाभ आपके नम्र न होने के कारण नहीं मिलता है। कबीर ने कहा है न -

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।

खजूर का पेड़ इतना बड़ा है, क्या फायदा। ना तो वह छाया ही दे सकता है, ना ही फल!

इसी प्रकार कहा गया है -

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

किताबी ज्ञान से कोई पंडित या विद्वान नहीं होता। जो प्रेम को समझता है, करुणामय है वही वास्तविक ज्ञानी है। जो प्रेम - स्नेह से युक्त है वह पंडित है। आपका सांसारिक ज्ञान आपके पांडित्य की परिभाषा नहीं है। जिसमें जीव मात्र हेतु भी प्रेम है, दया है वह पंडित है। श्रीरामचरितमानस का ही एक और पात्र - जटायु उदाहरण है। प्रभु प्रेम और निश्छल - निस्वार्य दया - नम्रता में उसने अपने प्राणों की आहुति दे दी। और जैसे मैंने कहा श्रीराम का कुशल नेतृत्व - वह यहाँ भी देखने मिलता है। उन्होंने जटायु का विधिवध श्राद्ध स्वयं किया।

कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥

गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥

भावार्थ:- श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगी जन माँगते रहते हैं॥

मैं समझता हूँ कि The Railway Men ने भोपाल त्रासदी के इस पक्ष को बहुत ही उत्कृष्ठता के साथ प्रदर्शित किया है। अत: आप सभी से विनम्र आग्रह करूंगा कि आप इसे अवश्य देखें। इसी के साथ मैं आपको एक भजन‌ के साथ छोड़े जाता हूँ-



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