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मन में- 1. विवेक

Updated: Jul 27, 2023

मन में-

प्रश्न उठा है एकाएक!

क्या कर सकता है विवेक?

मनुष्य की शक्ति का सार,

ईश्वर का अमूल्य उपहार।

जल बिना मीन जैसे,

मनुष्य बुद्धि हीन वैसे।

पर्वत सी परिस्थिति प्रतिकूल,

समग्र समाधानों का मूल।

हमारा सारथी इस जग में,

भटके का सहारा मग में।

अंधे को लाठी जैसे,

बेल को काठी जैसे,

रेगिस्तान में ज्यों जल का गागर,

यूं ही संसार में मिले नागर।


नाविक की नाव है

पहलवान का दाव है

स्त्री का शृंगार है

सरिता की धार है

आस्था का द्वार है

सावित्री-सत्यवान का प्यार है

सर्प की मणि है

शंख की ध्वनि है

चंद्र की चांदिनी है

पुरुष की भामिनी है

शरीर का प्राण है

साधु का मान है

तुरग की चाल है

करि का भार है

सरोवर का कमल है

तरु का फल है

पुष्प का पराग है

संगीत का राग है

कर्ण का दान है

सैरंध्री का स्वाभिमान है


विवेक का ऐसा ही प्रसंग,

जिसमें हैं विभिन्न रंग!

सदियों पुरानी बात है,

पर आज भी विख्यात है।

आंध्र का एक ग्राम,

था प्रसिद्ध, तेनाली नाम।

वहां रहता था एक युवान,

आने वाले कल से अनजान,

छोटी उम्र में, पिता से अनाथ,

केवल था माता का साथ।

रामा कृष्णा नाम से प्रसिद्ध,

ब्राह्मण, था परिवार दरिद्र।

उसका मन चंचल था,

उन्मुक्त उसका हर पल था,

जीवन में नहीं कोई प्रयोजन,

सदैव व्यर्थ किया हर क्षण,

उसको नहीं था प्रिय- परिश्रम,

फिर भी चाहिए था जीवन- उत्तम।


पर ज्यों की कीचड़ में कमल,

त्यों उसमें भी था गुण एकल!

गुण ऐसा, सब अवगुण पर भारी,

कमल दल पर ज्यों टिके न वारि।

वह बुद्धि से चतुर था,

परंतु यह मात्र अंकुर था!

जौहरी ज्यों हीरे को पहचाने,

आया एक साधु राह बताने।

पा अवसर, एक बार,

पहुंचे साधु रामा के द्वार।

सामर्थ्य अनुसार सत्कार किया।

“मुझे यह पुण्य किस कारण दिया?”

-बोला रामा कर वाणी विनम्र।

“बताने आया हूं तुम्हारा मर्म।

जीवन नहीं सामान्य तुम्हारा,

दुर्लभ हो ज्यों ध्रुव तारा।

ना करो यह जन्म तुम व्यर्थ,

कर लो अधीन सुख संपत्ति अर्थ।”

अचंभित रामा सुनकर वाणी

-क्या कहना चाहते मुनि ज्ञानी?

पुनः बोले साधु समझाकर-

“भगवती को कर प्रसन्न जाकर,

इस भव से वही पार लगाएंगी,

समृद्धि का तुझे द्वार दिखाएंगी।

चारों पदार्थ करले अपने करतल,

पा ले तू असीम बुद्धि-बल!

देता हूं तुझको एक मंत्र,

करेगा समस्त दुखों का अंत!

जीवन का तूझे उद्देश्य मिलेगा,

अब ना तू कोई कष्ट सहेगा।”

होकर वचनों से प्रोत्साहित,

चला रामा, साधने अपने हित।

समझ बूझ कर मुनि का मंतव्य,

आ पहुंचा रामा अपने गंतव्य।

मां काली का था मंदिर विशाल,

ध्यान लगाया बुलाकर हर ख्याल,

लग गया मां की आराधना में,

वांछित वरदान की कामना में।

कई दिनों की तपस्या के बाद,

प्रकट हुई मां देने आशीर्वाद।

विकराल स्वरूप, धारण कर त्रिशूल,

महिषासुर को किया जिससे निर्मूल।

रक्त की भांति लाल नेत्र,

दिप्त आनन सरिस सैंकड़ों सुकेत।

जीव्हा बाहर, भीषण रौद्र आकृति,

देख दानव जिसे, करते वृति।

श्यामा वर्ण पर रौद्र श्रृंगार,

केश लहरें ज्यों समुद्र में ज्वार।

गहे रक्तबीज का कटा कपाल,

स्वरूप ऐसा मानो साक्षात काल,

काली का रूप धर कठोर,

बोली-“उठ रामा देख मेरी ओर!”

जन्मांध को मानों मिले नयन,

रामा ने गहे माँ के चरण-

“जय जय हे मां जगदम्बा!

विनाशकारिनी तू पाप कदम्बा,

तू ही है भव भयहारिणी,

जय हो माँ कपाल धारिणी!

तू धारण करती अनेक शस्त्र

हे माँ! तेरे नाम सहस्त्र।

धन्य हुआ पा तेरे दर्शन साक्षात,

चातक ज्यों पा स्वाति की बरसात।

परन्तु हे माँ ये रूप तेरा,

बड़ा विकराल न जाता हेरा।

सौम्य रूप में तू दर्शन दे,

मुझको तू अपनी शरण ले।”

मां ने बदला अपना आकार

“तुझको मेरा भय किस प्रकार;

अधम होते मुझसे भयभीत,

तू तो है मेरा भक्त पुनीत।

यह देख रूप तेरी इच्छानुसार!”

-बोली मां कर प्रार्थना स्वीकार।


प्रकट हुई मां धर दूजा रूप,

सुंदर गौर वर्ण की कांति अनूप,

अर्धचंद्र ज्यों मध्य तारक अनेक,

मुख पर व्याप्त त्यों स्मृत रेख।

मानो अंब में समाहित स्नेह,

ममता रूपी आंचल है निःसंदेह।

मस्तक पर है मौर विराजित,

पद पंकज में नुपूर सुशोभित।

अवर्णीय अलौकिक मां के अवतंस

मानो समस्त शोभा उसी के अंश।

अमृत पा गया मानो रोगी,

परमगति को प्राप्त ज्यों जोगी,

रंक को जैसे कुबेर की निधि,

रामा की दशा उसी विधि।

याचना कर बोला वचन विनीत-

“धन्य हुआ पाकर तेरा प्रीत;

पर मन में मेरे एक संशय,

आज्ञा हो तो करो कुछ विनय।”


भगवती बोली- “हो तो निसंकोच;

पूछ मिटा ले अपनी सोच।”

“मां मत करना तुम क्रोध,

मैं हूं तेरा बालक अबोध।

मनुष्य को जब होता ज़ुकाम,

हो जाता समाप्त समस्त विश्राम।

हम एक मुख से इतना परेशान;

तो फिर हे मां! करुणा निधान,

तेरे तो है मुख हजार,

सार-संभार करती किस प्रकार?”

सुनकर रामा का विचित्र सवाल,

मानो विक्रम से पहेलियां बुझता बेताल।

आश्चर्य चकित माता भरमाई,

फिर यूं कहकर खिलखिलाई-

"यह प्रश्न तुझे सूझा कैसा!

कभी किसी ने ना पूछा ऐसा।

क्या मैं दूं इसका उत्तर?

विचार नहीं किया कभी इसपर।

नहीं मेरे पास इसका समाधान;

पर देती हूं तुझे एक वरदान।

मेरे हाथों में है दो प्याले,

इनमें से कोई एक उठा ले!

दाएं हस्त में जो दधि है,

ज्ञान बुद्धि रूपी जलधि है।

दूध रखा जो है बाँई ओर,

धन-वैभव रूपी वह नवभोर।

करना रामा तू सही चयन,

किसकी आवश्यकता- बुद्धि या धन।"

गंभीर हो रामा करता विचार,

किसको त्याग करें किसे स्वीकार?

दधि-दूध का कर मिश्रण,

रामा कर गया उसका सेवन!

"ये कैसा तेरा दुस्साहस रामा,

मेरे कथन का किया वामा।"

-बोली भगवती होकर कुपित।

करे जोड़े रामा भय सहित।


बोला- "क्षमा करो हे माता!

धन छोड़ जो विद्या मैं पाता,

नहीं आती काम दरिद्रता में,

ज्यों विभिन्न रंग अंधता में।

बुद्धि बिन अर्थ का क्या अर्थ?

सूर्य समक्ष ज्यों दीप व्यर्थ!

देना हो यदि तुमको वरदान,

दो दोनों- समृद्धि और ज्ञान।"

विनय सुनने के उपरांत,

बोली मां होकर शांत-

"ठीक है दिया तुझे उभय;

पर आचरण तेरा था अनय।

मेरे वचनों का कर उल्लंघन,

दिया दुष्परिणाम को निमंत्रण।

अवश्य होंगे बुद्धि और वैभव,

परंतु साथ रहेगा एक अव!

विदूषक बन पाएगा तू प्रसिद्धि;

विनोद को उपयोग होगी बुद्धि।"

बोली कुछ नर्म हो माता-

"होगा तू सब वेदों का ज्ञाता;

सारे शास्त्र होंगे तेरे आधीन,

ज्यों सर्प सम्मोहित सुनकर बीन।

ऐश्वर्य का होगा तू स्वामी,

सुख समृद्धि होंगे तेरे अनुगामी।

ना हो तु उदास इस भांति,

तेनाली पाएगा तुझसे ही ख्याति।

धन्य धान से तोषित रहेगा सदन।"

तृषित ताल पर ज्यों बरसे घन।

कहकर यह मां हुई अंतर्धान;

दे सद्बुद्धि-समृद्धि का वरदान!



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