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मन में - 2. वंचना

जितना है विवेक वरदान उपकारी,

उतनी ही वंचना व्याधि भारी।

सर्प के विष के हैं समान,

मानो अर्जुन का है अचूक बाण।

पाकर लालच रूपी अनल-कण,

कर उपयोग मिथ्या रूपी इंधन,

भस्म करता वृक्ष रुपी विश्वास,

सौहार्द के कुरंग को कर निर्वास।

वैर का धुआं उठता है संग,

बेघर कर प्रीत रूपी विहंग।

लघु लाभ का देकर प्रलोभन,

उजाड़ देता है जीवन का शांतिवन।

खुद भी तो होता है तपित,

ग्लानी की अग्नि से हो ग्रसित।

कैसे आती है नींद निशा में,

बढ़ते कैसे हैं इस दिशा में।

क्या पूछता ना होगा अंतर्मन-

"क्यों बोले तूने मिथ्या वचन?

क्यों पाने को अपने उल्लास,

दिखाई तूने उसे झूठी आस?

सिद्ध करने को अपना स्वार्थ,

क्यों छुपाया तूने उससे यथार्थ?"

कैसे करता है प्रश्नों का सामना,

कर पर-अहित की कामना।

प्रश्नों को छोड़ जाता हूं,

कहानी आगे बढ़ाता हूं...

विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय,

उदारता वीरता के पर्याय।

जितने राज गुण कहे वेद पुराण,

कृष्णदेव राय में समस्त विद्यमान।

करते थे शासन धर्म सम्मत,

किए धारण सेवा का व्रत,

न्याय को देते स्थान प्रधान,

समस्त प्रजा को देखें एक समान।

विद्वानों का करते आदर सत्कार,

वर्ण निरपेक्ष पाते सब उपहार।

शूरवीर, पर नहीं थे अहंकारी,

दृढ़ निश्चयी सत्य संकल्प धारी।

इधर कहानी में हुआ विस्तार,

रामा ने बसाया नव संसार।

शारदा संग बंधा परिणय सूत्र,

प्राप्त हुआ भास्कर नामक पुत्र।

रामा के मन में थी इच्छा,

दरबार में मिले पद अच्छा!

फिर जीवन हो जाएगा साकार।

परंतु हो यह किस प्रकार?

-रामा को सदा यही चिंता

क्या निश्चित किया है रचयिता?

कुछ समय पश्चात एक बार,

रामा को मिला शुभ समाचार।

राजगुरु तथाचार्य का, सजन

हुआ था तेनाली में आगमन।

मानो मरू में मुसाफिर को छांव,

भटके यात्री को समुद्र में नाव,

हिमालय में ज्यों ज्वलित दीपशिखा,

त्यों रामा को आशा द्वार दिखा।

पाया है यह मैंने सुअवसर,

यदि हो राजगुरु मेरे पक्षधर,

जो वें कर दे मेरी अनुशंसा,

महाराज समक्ष चातुर्य की प्रशंसा,

हो जाएगा सुगम दरबार में प्रवेश,

मिल जाएगा पद बिन क्लेश।

करेंगे सहायता- लिए यह आस,

पहुंचा रामा राजगुरु के पास।

किए वंदन उनके चरण कमल,

दिखलाइए अपनी रचनाएं सकल,

कराया परिचय अपना ज्ञान भंडार,

सुनकर कमल को मानो मारा तुषार!

अपने ही प्रतिद्वंद्वी को निहार,

मन ही मन गुरु करते विचार -

"पा जाएगा यदि यह स्थान,

समाप्त हो जाएगा मेरा मान।

क्यों ना कर इसको भ्रमित,

साध लूं मैं अपना हित!

दे पद प्रलोभन की खाद,

सींच जल सम शीतल वाद,

रामा के वृक्ष रूपी ज्ञान,

से सजाऊंगा अपना उद्यान।"

फिर बोले कर वाणी प्रकट,

वचन मनोभाव से यूं उलट-

"किया है तुमने अच्छा प्रयास,

पर करना होगा और अभ्यास।

ठहरा हूं मैं यहां एक मास,

करूंगा प्रशिक्षित रहो मेरे पास।"

रामा इसे अपना सौभाग्य जान,

पथिक ज्यों पहुंचा गंतव्य स्थान,

शरीर को मानो मिले प्राण,

समझ मधु करता विषपान।

बोला कर जोड़े हे स्वामी,

धन्य-धन्य हुआ आपका अनुगामी।

कर राजगुरु का प्रस्ताव स्वीकार,

रह गया रामा इस प्रकार।

मन में लिए वंचना का भाव,

सामने करते गुरु उदार बर्ताव।

यूं ही बीती निवास अवधि,

चले तथा कर रामा से संधि-

बोले- "खुद को कर समर्पित,

हो गए हो तुम प्रशिक्षित।

करता हूं अब मैं प्रस्थान,

दरबार जा करूंगा तुम्हारा बखान।

अनुचर ले आएंगे राज निमंत्रण,

करना उनके साथ नगर गमन।

धरो धीरज अब चिंता त्याग!"

मानो कोकिल स्वर बोलता काग!

मन कपटी किंतु वाणी मधुर,

कनक कलश में मानो माहुर।

मन में रखे पद की इच्छा,

रामा करता रहा बड़ी प्रतीक्षा।

बीत गए जब कई मास,

निमंत्रण न पा हुआ उदास।

व्यय न करते हुए और समय,

विजयनगर जाने का किया निश्चय।

कर प्रबंध सपरिवार किया निकास,

आ पहुंचा तथाचार्य के निवास।

अपने आगमन का भिजवाया संदेश,

उत्तर सुनकर लगी बड़ी ठेस!

"किसी रामा से नहीं मेरी पहचान,

ऐसे लोगों से घटती मेरी शान।"

हुआ कुंठित रामा सुन उत्तर

आशा के सूरज पर छाए जलधर,

जिसे कल्प-वृक्ष समक्ष सींचा,

फल निकला उसका इतना नीचा।

प्रवेश किया भीतर मर्यादा त्याग,

लिए हिय में क्रोध की आग-

"क्या आप से नहीं मेरा परिचय,

क्यों करते आप बात अनय?

खो बैठे क्या अपनी स्मृति?

या शुरू से ही थी कुमति!

मेरे किए हुए सारे उपकार,

इतनी शीघ्र दिए परिहार।"

उठे तमतमा सुन रामा के वचन,

सेवक को दिया आदेश उसी क्षण।

कर दिया बाहर धक्के मार,

पूरे नगर समक्ष किया तिरस्कार।

नजरअंदाज कर समस्त याचिका,

दूध से फेंके मानों मक्षिका!

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