top of page
  • LinkedIn
  • Facebook
  • Instagram

मन में - 3. प्रवेश

Updated: Nov 9, 2023

दरबार में अद्भुत है शोभा आज,

सजा है चारों ओर साजों-साज,

हो रहा था बड़ा सम्मेलन,

थे उपस्थित विशिष्ट ज्ञानी जन।

आए थे पार कर प्रांत,

थी इंद्रसभा सम संभ्रांत।

रामा भी जा पहुंचा राज दरबार;

अवसर ही तो ताँके हैं निराधार।

सफलता के दो मूल निवास,

आत्मविश्वास और निरंतर प्रयास।

आत्मविश्वास है जिसके 'मन में',

सिंह समान सो वन में।

जब हो खुद को ही शंका,

कैसे बजेगा जग में डंका!

बिन प्रयास नहीं होगे निपुण,

खर्च नहीं निखरते हैं गुण।

प्रयास का एक-एक चिराग,

दीप्त करता चरित्र, बन आग।


चर्चा का विषय बड़ा गंभीर-

संसारी सुख और नाशवान शरीर।

मानव जीवन पर बातें गूढ़-विशाल,

कोई माया, कोई कहे काल।

तभी उठे राजगुरु तथाचार्य विद्वान,

करने अपना मेधावी व्याख्यान-

"है छलावा यह समस्त संसार,

मोह माया रूपी यह पैदावार।

जो कुछ हमें है ज्ञात,

सब की सब है झूठी बात।

जो देखते, सुनते या करते एहसास,

वास्तविकता का नहीं होता वास।

चाहे हो हमारे मनोभाव,

सुख-दुख पारदर्शिता या दुराव,

विचारों का रचा हुआ भ्रमजाल,

इसीलिए हमारा होता ऐसा हाल।

क्षणिक सुख है वस्तुएं सकल,

भोग विलास का कहां कोई फल।

देह का निश्चित नाश होना है,

तो क्या पत्थर, क्या सोना है!

सब हैं उसकी काठ, धरें भेष,

कहूं गलत तो बतलाओ नरेश।"

देते राव को चुनौती हुए आसीन,

उत्तर ना सूझें, राजन तर्कहीन।


सब सभासद भर रहे हामी,

प्रस्तुत करते साक्ष्य अनुगामी।

कुछ प्रतीक्षा के भी बाद,

कोई नहीं जो करता प्रतिवाद।

राजा कृष्णदेव राय उठे सरोष,

उच्च स्वर में किया उद्घोष!

मानो वन में सिंह सा नर्दन,

या ज्यों गरजे हो श्यामल घन!

"क्या यह सभा चातुर्य हीन है?

सभी दरबारी आश्रित अथवा दीन है?

कोई नहीं जो रखे भिन्न विचार-

मंत्री, पंडित या भीड़ अपार?

जो काट सको गुरु का तर्क,

समक्ष आ दिखलाओ अपना अर्क।

मिलेगा पुरस्कार और सम्मान,

जो खींच सको मेरा ध्यान।

रामा जान इसे उत्तम सुयोग,

मानो रंक को मिले छपन्न भोग।

निकल भीड़ से आया सामने,

सविश्वास जोड़े कर राम ने,

कर भूप और दरबार को प्रणाम,

दिया अपना परिचय बदला नाम।


फिर सविनय बोला- "हे राजन!

आज फलित हुआ मेरा जीवन!

हो यदि मुझे आपकी अनुमति,

कहना कुछ कथित वाद के प्रति।

ठीक ही तो कहते हैं गुरुवर,

है यह मानव शरीर नश्वर।

सुख-दुख या गुण-विकार,

सबका हेतु- मन के विचार!

फिर क्यों करना भोग-विलास,

सोचने से ही मिटेगी भूख-प्यास।

दोपहर का यह समय उचित है,

पधारे पृथक प्रदेश से अतिथ हैं,

ऐसे अवसर नहीं होते रोज,

क्यों ना आयोजित हो महाभोज!

महाराज दीजिए सब को आमंत्रण,

परंतु, नहीं खाएंगे केवल गुरुजन।"

सभा चकित सुनकर प्रस्ताव,

समझ ना सके कोई गुढ़ भाव।

विश्मय की कलियों को खोले,

रामा ने पुनः वचन बोले-

"आचार्य से यह मेरी प्रार्थना है,

उन्हें खाना नहीं केवल सोचना है।

सोच ले कि भोजन कर रहे साथ,

इससे साबित हो जाएगी इनकी बात।

गुरु स्वीकार कीजिए मेरा विनय,

होगी कथन की सत्यता तय।"

हां-ना कहते नहीं बनता है,

मृग अपनी ही तृष्णा में फंसता है,

आखेट को ज्यों फांसे लूटिका,

मानो कामी को साधे गणिका।

जो सभा करती थी वाह-वाह,

मार रही वो अब ठहाकें अथाह।

राजा हुए रामा से बड़े प्रसन्न,

जान उसे बुद्धि-विनोद से संपन्न।

रामा को पुरस्कृत करते भूपाल,

दिया स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल।

विदूषक बन नियुक्त हुआ दरबार में,

हर्षित रामा मानों पंछी बयार में।

इस प्रकार हुआ दरबार में प्रवेश,

तथाचार्य से प्रतिशोध अभी शेष!


Comments


CATEGORIES

Posts Archive

Tags

HAVE YOU MISSED ANYTHING LATELY?
LET US KNOW

Thanks for submitting!

 © BLACK AND WHITE IS WHAT YOU SEE

bottom of page