मन में– 4. प्रतिकार
वंचना बीज है प्रतिकार का,
रोपती वृक्ष अनेक विकार का।
स्मृति-पट के घांव पर लेप सा-
मिथ्या हर्ष हेतु यह क्षेप, हा!
प्रतिकार कदापि नहीं न्याय है,
आँख प्रति आँख का उपाय है।
घमंड कोदंड प्रचंड, प्रत्यंचा क्रोध,
आरूढ़ मूढ़-गूढ़ बाण प्रतिशोध!
अधीरता से पाकर विनाशी वेग,
स्वार्थ लक्ष्य साधे सह आवेग।
क्षमा से बढ़कर कौन बड़ाई,
शांति का निवास जहाँ स्थायी।
अभिमान की पराजय से प्रशस्त,
उसी मार्ग स्थित समाधान समस्त।
रामा के 'मन में' कटुता व्याप्त,
करके रहेगा अपना प्रतिशोध प्राप्त।
करता उचित अवसर की प्रतीक्षा,
जिससे तथाचार्य को सिखाए शिक्षा।
जाते राजगुरु तुंगभद्रा हेतु स्नान,
नगर से तीन मील, दैनिक विधान।
एक प्रभात जा पहुंचा तेनालीराम,
सोचता युक्ति जिससे बने काम।
यद्यपि नग्न स्नान शास्त्र वर्जित,
तथाचार्य करते वही जो इच्छित।
ज्यों भवसागर में अनभिज्ञ मानव,
मायाधीन, ठुकराए काल के अनुभव!
त्याग सब परिधान सरिता तीर,
मांझ खड़े निश्चिंत, निर्वस्त्र शरीर।
उनके वस्त्रों को तेनाली ने छिपाया,
जैसे मनोभावों को बाह्य काया।
स्नान उपरांत जब किया निकास,
नहीं दिखे वस्त्र कहीं आसपास।
देखा तेनालीराम को निकट ठार,
समझ गए- दो और दो चार!
"मेरे कपड़े कहाँ हैं, तेनाली?
यह चाल तुम्हारी नहीं आली!"
"ओह! आपको स्मरण है मेरा नाम!
पहले तो आपके वचन थे वाम।
आपके वस्त्र विषय नहीं मुझे ज्ञात।"
- यूं रामा ने कही व्यंग्ययुक्त बात।
"मत कहो ऐसी कटु वाणी,
लो अपनी भूल मैंने मानी।
कहोगे जो तुम उसमें मेरी हामी,
मैं तुम्हारा अनुचर, तुम स्वामी,
पर वापस लौटा दो मेरे परिधान।"
-बोले राजगुरु होकर विनीत,परेशान।
बोला रामा सहित तिरस्कार भाव,
मानो करता हो उपचार अपने घांव-
"ठीक है, माननी होगी मेरी शर्त,
कंधे पर बैठा लगाइए नगर विवर्त।
कहिए, है मेरी बात स्वीकार?
अन्यथा होगा राज्य में दुष्प्रचार!”
विवशतावश राजगुरु ने दी सहमति,
कामी मनुष्य मायावश मानों रति।
धारण कर वस्त्र वचन अनुरूप,
बिठाया कंधों पर- दृश्य अनूप!
लेकर चलें रामा को नगर ओर,
विचित्र दृश्य देख उपहासी शोर।
बजती तालियाँ, बने गुरु हास्यपात्र,
शासन था जिनका एक वचन मात्र।
जब पहुंचे गुरु राजमहल समीप,
शोर सुनकर बाहर निकले महीप।
स्तब्ध राजा आश्चर्यचकित दृश्य देख-
राजगुरु का लज्जित, दुर्बल बेष!
मानों बह चली हो वाम गंगधार,
या ऊष्मता देता हो तुषार।
होए क्रोधित देख ऐसा अपमान,
दिया आदेश बुला दो दरबान-
“जाओ दोनों प्रांगण में भूतल,
एक आदमी चढ़ा दूसरे के ऊपर,
गिरा दो जो कंधे पर सवार,
करो लात-घूंसो से सत्कार।
पास लाओ उन्हें सम्मान सहित,
जो उठाए बोझ होकर व्यथित।"
भांप गया चतुर रामा यह आदेश,
उतरकर गहे चरण बीते निमेष।
वचन की तीक्ष्ण कटुता छोड़,
मृदु गिरा में बोला कर जोड़-
“हे नाथ, क्षमा करो मेरे अपराध,
थी मेरी मति क्षीण-निर्बाध।
मैं करना चाहता हूँ पश्चाताप,
अब मेरे कंधों पर बैठिए आप।”
बिठा गुरु को चला राजनिवास,
इतने में आए अंगरक्षक पास।
कहने-सुनने को नहीं दिया समय,
पालन करते हुए राजन का निर्णय,
राजगुरु को गिरा, किया प्रहार,
तेनाली का ज्यों हुआ था तिरस्कार।
तेनाली को लेकर गए रक्षक सादर,
राय समक्ष किया घटनाक्रम उजागर।
देखकर रामा को चकित महाराज-
“इसे यहां लाए किस काज!
क्यों नहीं पालन किया मेरा आदेश,
क्या तुम्हें नहीं भय मात्र लेष!”
“हमनें तो माने आपके ही वचन,
उठाए हुए था यही जर्जर तन!”
समझ गया राजा रामा की चाल-
“बुद्धि तो तेरी है चतुर विशाल,
परंतु राजगुरु का कर अपमान,
जिनका करते है सब सम्मान,
किया परोक्ष मेरा भी निरादर,
दण्ड का अधिकारी तू कादर।
जाकर उतारो इसे मौत के घाट,
दिखलाओ तलवार सिर काट!”
तेनाली सोचता रक्षा की युक्ति,
जिससे हो प्राणदंड से मुक्ति।
जो ना निकले घी सिधे हाथ,
करो उंगली टेढ़ी बुद्धि साथ।
देकर स्वर्ण मुद्राओं का लालच,
गया तेनाली मृत्यु से बच,
जाकर छिप गया अपने निवास।
कर पशु रक्त से लाल चन्द्रहास
रक्षकों ने किया राजा का संतोष,
छिपाने को अपने भ्रष्ट दोष।
अब रामा ने की नई तरकीब,
बना माँ-पत्नी को दीन-ग़रीब,
भेजा दरबार में करते विलाप,
रोती- चिल्लाती, देती हुई श्राप!
राजा ने देख किया सवाल-
“क्यों बनाया है ऐसा हाल?
धीरज धर कहो अपनी बात,
ऐसा कौन सा हुआ आपात?”
रोते-रोते मां ने की फरियाद-
“राजन! हेतू एक छोटे से अपराध
दिया राम को दिया मृत्युदंड,
न्याय नहीं यह खुला पाखंड।
छीना मेरे बुढ़ापे का सहारा,
किया बेचारी को विधवा दारा,
हो गया शिशु पिता हीन,
मानों हम तीन जल बिन मीन!”
सुन राजा को आ गई दया–
“यह मुझसे क्या हो गया!
माई! क्षमा कर मेरी भूल भारी,
मैं तेरे रोष का अधिकारी।
राजकोष से मिले मासिक अनुदान
–करता हूँ मैं ऐसा प्रावधान।
सत मुदाएँ मिले उपहार स्वरूप।”
–इस प्रकार मंत्रियों से बोले भूप।
जब सुनाया माता ने यह समाचार,
खूब हंसा रामा ठट्टा मार।
प्रतिकार का अंत कदा हंसीं है?
देखिए क्या नियति रची-बसी है!
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