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मानस निति कुंज- अयोध्याकाण्ड

रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।

अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥

अयोध्या काण्ड श्रीरामचरितमानस का द्वितीय सोपान है। इसका नाम उसी अयोध्या पर है जहाँ आज 22 जनवरी को रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा होनी है। प्राण-प्रतिष्ठा समझते हैं? यूँ तो हिंदू धर्म में कण-कण में ईश्वर को वास माना गया है। तथापि मन्दिर का विशिष्ट महत्त्व है। मन्दिर में स्थापित मूर्ति को माध्यम बनाकर ईश्वरीय सान्धिय का प्रयोजन किया जाता है। इसी प्रक्रिया हेतु निर्जीव पत्थर में ईश्वर का आह्वान करके पत्थर को ईश्वर - तुल्य बनाया जाता है। यही अनुष्ठान प्राण-प्रतिष्ठा कहलाती है। अयोध्याधाम राम की नगरी है तथा अयोध्याकाण्ड राम को मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने की कथा का आधार। अयोध्याकाण्ड का विस्तार विवाहोत्तर उमंग, राम युवराज अभिषेक की तैयारी, कैकेयी वरदान, वन गमन से होते हुए राम - भरत मिलाप पर समाप्त होती है। इस लेख का उद्‌देश्य पूरक भाग की भांति मानस से उन बातों का उल्लेख करना जो हमारे जीवन में हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। बालकाण्ड की ही तरह अयोध्याकाण्ड में भी पहले वंदना है-

श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥

भावार्थ:-श्री गुरुजी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथजी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फलों को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) देने वाला है।

चार फल अर्थात् चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। जब हम अपने मन-मुकुर को निर्मल कर लेंगे उसके उपरांत ही हम राम नाम का विमल यश वर्णित कर सकते है। मन की स्वच्छता का संदेश यहाँ स्पष्ट है। मन मैला हो तो प्रभु का ध्यान नहीं हो सकता। मन का मैल है - छल-कपट, , ईर्ष्या, क्रोध, मद, अहं, दोष, दुख आदि । गुरु के आर्शीवाद से मन स्वच्छ होता है। गुरु तो कोई भी हो सकता । उपनिषद का उपदेश है-

युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि।

युक्तिहीनं वचस्त्याज्यं वृद्धादपि शुकादपि ॥

युक्ति युक्त वचन ग्रहण करना चाहिए, चाहे वह वचन कोई बालक बोले या शुक (तोता)। इस विचारानुसार एक बालक भी गुरु हो सकता है। शिक्षा उर्म तथा कद की मोहताज नहीं है। एक और बात यहाँ उल्लेखनीय है । चार पुरुषार्थ का क्रम आवश्यक है। सबसे पहले धर्म क्या है? यह प्रश्न मेरी बुद्धि से मत पूछिए। मेरा इस संबंध में जो मत है वह मत ही माना जाए, तो उचित होगा। धर्म का विचार स्वयं कीजिए। जो संपदा धर्मोचित अर्जित है, वही अर्थ है, अन्यथा नहीं। जिस कामना की कामना धर्म सम्मत हो और अर्थ द्वारा पूर्ण हो सके वह तभी काम है। इन तीनों समयोजन से व्यतीत जीवन मोक्ष प्राप्त करता है। एक ही दोहे के माध्यम से कितनी बाते बत‌लाई गई है- गुरु का सान्धिय, मन की निर्मलता, प्रभु के गुणों का वर्णन और चार फल।

सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥

तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥

भावार्थ:-इधर तो सब यह कह रहे हैं कि कल कब होगा, उधर कुचक्री देवता विघ्न मना रहे हैं॥ उन्हें (देवताओं को) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरों को पकड़कर उन पर गिरते हैं॥4॥

इस चौपाई के माध्यम से तुलसादास न ईर्ष्यालु लोगों की ओर संकेत किया। ईर्ष्या मन का वह मैल है जो किसी अभाव अथवा हानि शव नहीं होता है अपितु जो किसी अन्य की प्रगति, उन्नति, सुख, संपदा अथवा यश के कारण होता है। स्वार्थ ईर्ष्या का ईधन है। स्वार्थी व्यक्ति प्रत्येक से ही ईर्ष्या करता है। स्वार्थ का बीज ईर्ष्या का वृक्ष ही देता है जिसपे केवल द्वेष के फल फलते हैं। जिस प्रकार चोरों को चांदिनी रात नहीं भाती क्योंकि वह उनकें स्वार्थ प्रयोजन को सिद्ध नहीं करती। चंद्रमा तो अपने प्राकृत चक्र का पालन करता है, उसका इसके पीछे किसी को हानि-लाभ पहुँचाना कारण नहीं है। तथापि चोर अपने स्वार्थ हेतु चंद्रमा को बुरा कहता है, उसके वृद्धि की निंदा करता है। यह भी कोई आवश्यक नहीं है कि ऐसा स्वार्थ और ईर्ष्या द्ररिदता वश होती हो। उच्च पदासीन की भी नीच सोच हो सकती है।

ऊँच निवासु नीचि करतूती।

देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥

भावार्थ:-बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वे यह विचारकर चलीं कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊँचा है, पर इनकी करनी नीची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते॥

एक मुहावरा आपने सुना होगा 'ऊँची दुकान- फीके पकवान' या 'नाम बड़े - दर्शन छोटे' । पद ऊंचा होने से विचार और कर्म श्रेष्ठ नहीं होते। जिसके कर्म महान होते है, उनके ही पद की महत्त्वता होती है। यह कहना उचित होगा कि पद से व्यक्ति नहीं अथवा व्यक्ति से पद शोभित होता है। कई विशिष्ट पद धारण कीए लोग उसपे कलंक लगा जा जाते है तो कई योग्य लोगों की अनदेखी होती है। यह कोई अनोखी बात नहीं है। कालान्तर में सदैव ऐसा होता आया है। परंतु इसका यह तात्पर्य तो नहीं कि पदेन से ईष्यों की जाए अथवा अपने कर्म का त्याग किया जाए। परायी विभूती देखकर दुःख नहीं हर्षित होने वाले ही रामप्रिय है। जिस प्रकार चंद्रमा का बढ़ना देखना समुद्र की लहरें उमंग से उठित है वैसा ही आचरण हमें और आपको करना चाहिए।

कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।

भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥

भावार्थ:- कद्रू ने विनता को दुःख दिया था, तुम्हें कौसल्या देगी। भरत कारागार का सेवन करेंगे (जेल की हवा खाएँगे) और लक्ष्मण राम के नायब (सहकारी) होंगे॥

इस दोहे में यूँ तो कोई स्पष्ट सीख नहीं दी गई है। यह कैकेयी मंथरा - संवाद का अंश है जिसका प्रयोग मंथरा कैकेयी को बड़काने के लिए करती है। परंतु इस दोहे का जो प्रभाव है पह बड़ा दूरगामी समझ आता है। इस दोहे से पूर्व कैकेयी राम की हितैषी है और उनके विरुद्ध कुछ नहीं सुनना चाहती। परंतु जैसे ही मंथरा इस दोहे के माध्यम से कैकेयी को कद्रू - विनता का प्रकरण का उदाहरण देती है; कैकेयी का विचार बदल जाता है। तात्पर्य यह है कि जब भी कोई हमें किसी के विरुद्ध करना चाहता है तो वह पूर्व गठित घटनाओं का उदाहरण उदृत करता है। जैसे यहाँ मंथरा ने किया। नए वैर का बीज पुराने द्वेष की ही फसल से लिया। जिस प्रकार कद्रू ने विनता के साथ किया वैसा ही कौसल्या तुम्हारे साथ करेगी - यह वाक्य भूतकाल का उदाहरण देकर भविष्य का भय उत्पन्न करने का सेतु बना है। समाज में यह प्रत्येक नए विवाद को जन्म देने के लिए प्रयोग किया जाता है। चाहे वह दो लोगों के मध्य हो, दो वर्गों, जाति समूहों, राष्ट्रों या संप्रदायों के बीच। जब कोई आपको ऐसा उदाहरण दें तो इस दोहे के वक्ता को याद कीजिएगा और यह समझिएगा कि वह क्या करने की चेष्टा कर करना चाह रहा है।

अरि बस दैउ जिआवत जाही।

मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥

भावार्थ:- दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता है, उसके लिए तो जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है॥

शत्रु कौन है? पहला प्रश्न तो यही उठना चाहिए। जो हमारी निंदा करता है अथवा जो हमारे दोषों का अवलोकन करता है; क्या वह हमारा शत्रु बन जाता है? विचारों में परस्पर एकमत न होना शत्रुता नहीं है। हमारी ऐसी प्रशंसा करने वाला जो श्रवन मधुर हो परंतु अहितकर हो, शत्रु के लक्षण है जैसे यहाँ मंथरा। शत्रु बा‌ह्य हो यह भी आवश्यक नहीं है। ह‌मारा स्वयं का मन तब हमारा शत्रु हो जाता है जब वह राग-द्वेष, घमंड, ईर्ष्या, स्वार्थ आदि युक्त हो। नम्रता का क्षय होना मन की कटुता के लक्षण है। शत्रु अधीन जीवन जीने से अच्छी मृत्यु है। प्रत्येक आत्मस्वाभिमानी व्यक्ति इस बात से सहमती व्यक्त करेगा। पराधीन को तो सपने में भी सुख नहीं है। शत्रु अधीन केवल तिरस्कार का ही अधिकार होता है। आत्मसम्मान से बढ़कर कोई पदवी नहीं होती है। स्वाभिमान का अलंकार किसी भी अन्य मिथ्यावान आवरण से बढ़कर है। स्वाभिमान से जीया जीवन ही जीवन है अन्यथा मृत्यु अधिक गौरवशाली है।

रघुकुल रीति सदा चलि आई।

प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥

भावार्थ:- रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता॥

इस चौपाई से कौन अनभिज्ञ है। वचन का महत्त्व कितना होता है यह राजा दशरथ से उत्तम कौन बता सकेगा। अपने वचनों को पूरा करने के लिए उन्होंने न केवल अपने प्राण त्यागे परंतु राम को भी वनवास दे दिया। वचन का महत्व आज की पीढ़ी क्या जानेगी जो कभी सोच-समझ कर बोलती ही नहीं। एक बार जो वचन बोल दिए गए वह कभी वापस नहीं लिये जा सकते हैं। बोलने से पहले सोचें। मैंने हाल ही में किसी को कहते सुना कि ये व्यक्ति तो कहीं भी बोलना चालु कर सकता है। जी, यह सराहनआ करने के उद्देश्य से था। मैं इसे निंदा समझता हूँ। जिसे बोलने से पूर्व सोचना नहीं पड़ता वह अपना विवेक नहीं, बड़बोलापन दिखाता है। वाकपटु होने और मुखर होने में अंतर है। अपने आप को स्थापित करने हेतु झूठे दावे करना कोई सम्मान जनक बात नहीं है। ऐसी प्रतिष्ठा क्षणभंगुर है। झूठ के पाँव नहीं होते। सत्य वचन कहिए। अपने वचनों से पीछे मत हटिए। कहने से पहले सोचिए। कहने के बाद भी सोचिए कि जो कहा उसका क्या प्रभाव होगा। सही लगे तो वचन पर स्थिर रहिए अन्यथा क्षमा माँगने में संकोच नहीं करना चाहिए। क्षमा माँगने से आदमी बड़ा ही होता है। आपके वचन यदि किसी को प्रत्यक्ष या परोक्ष अपमानित करते हैं तो क्षमा माँगना आपका कर्तव्य है। इसमें लज्जा नहीं, हर्ष होना चाहिए।

सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा।

तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥

भावार्थ:-राजा शिबि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा।

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥

तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

भावार्थ:-हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥

मैं यहाँ तोड़ा सा विषयांतर करना चाहूँगा। चौपाई में राम कैकेयी को जननी कहते है। कैकेयी राम की जननी थी क्या? माँ अवश्य थी, पर जननी नहीं । जननी मतलब जन्म देने वाली। वह तो कौशल्या थी। चौपाई 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। जिसके नियम अनुसार 'जननी' और 'माता' दोनों में ही मात्रा संख्या बराबर है। तात्पर्य यह है कि यहाँ जननी गूढ़ अर्थ लिए है। अब बात मूल भाव की। राम उस पुत्र को भाग्यवान बताते है जिसका माता-पिता के वचनों में प्रेम हैं। वचन से अनुराग करना कठिन है। वचन से प्रेम का अर्थ प्रत्येक अक्षर का विवेकाहीन पालन क्योंकि प्रेम अनयन होता है। यदि आपका ऐसा प्रेम है जो चरण नहीं वचन से है, तो आप भाग्यशाली है। माता-पिता का ऐसा तोषन करने वाला पुत्र सारे संसार में दुर्लभ है। अयोध्याकाण्ड में गुरु - पिता - माता के प्रति आदर और उनके महात्मय का वर्णन बारम्बार मिलता। मैंने पिछले सोपान में इस भाव की व्याख्या की है। यहाँ केवल चौपाई-दोहे अर्थसहित प्रेषित कर रहा हूँ।

गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥

उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥

भावार्थ- (क्योंकि) गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना (मानना) चाहिए। उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ता है॥

जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥

भावार्थ- जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में (परमार्थिक दृष्टि से) भी बड़भागी होतें हैं!

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें।

चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें॥

भावार्थ-गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा (आज्ञा) का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने पर पैर गड्ढे में नहीं पड़ता (पतन नहीं होता)।

मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ।

लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ।।

जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत् में जन्म व्यर्थ ही है॥

काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।

का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥

भावार्थ:-आग क्या नहीं जला सकती! समुद्र में क्या नहीं समा सकता! अबला कहाने वाली प्रबल स्त्री (जाति) क्या नहीं कर सकती! और जगत में काल किसको नहीं खाता!॥

स्त्री के लिए अबला पर्याय है परंतु केवल भाषा में। स्त्री अबला नहीं, प्रबल सबला है। स्त्री प्रकृति है। सृजन करने की जो शक्ति स्त्री के पास है, वह पुरुष में नहीं। यह संसार है ही स्त्री पर निर्भर। महिला सशक्तिकरण की बातें तो यह समाज आज कर रहा । हमारी संस्कृति ने स्त्री को सदैव श्रेष्ठ स्थान ही दिया है। तुलसीदास कहते है जगत में ऐसा क्या है जो एक स्त्री नहीं कर सकती । स्त्री प्रत्येक कार्य को करने में दक्ष और सक्षम है।

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥

भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥

जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥

जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥

भावार्थ:-संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,॥

दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥

भावार्थ:-धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं।

संसार में विदित है तथा शास्त्रों का भी कहना है कि हम सभी अपने कर्मों का फल पाते है। हमारे साथ जो भी हो रहा है, वह हमारे ही कर्म के देन है। जैसे जिसके कर्म होते है - शुभ या अशुभ वैसा ही उसका परिणाम ईश्वर देते है। परंतु कई बार ऐसा होता है कि हमें हमारा फल वैसा नहीं मिलता जैसा कि कर्मानुसार अपेक्षित होता है। अपराध किसी का होता है और दण्ड - अपयश का पात्र कोई और ही बन जाता है। निराशा होती है, दुख होता है, बहुत होता हैं। मनुष्य स्वयं पर शंका करने लगता है। अपने अस्तित्व पर प्रश्न करता है। बाकि लोग भी उसके दशा देख कर यही विचार करते हैं कि अच्छे - सच्चे कर्मों का क्या लाभ है। क्या विधाता का न्याय यही है। विधाता के कौतुक कहाँ कोई समझ पाता है। यह एक दिलाशा देना भी हो सकता है कि ईश्वर कुछ दुसरा अच्छा सोचे है। हम और कर भी क्या सकते है। भविष्य का ज्ञान तो हमें है नहीं। एक और झूठी आशा ही सही। डुबते को तिनका ही काफी है। उम्मीद राखिए। राम वन न जाते तो क्या वह राम होते ?

अयोध्याकाण्ड में ही श्रीराम का वाल्मीकी जी से भेंट होती है। श्रीराम उनसे निवास करने का स्थान पूँछते हैं। उनका उत्तर बहुत अनूठा तो है ही साथ ही हम सभी के लिए एक ऐसे चरित्र का वर्णन भी करता है जिसके मन में राम स्वयं निवास करते हैं। यह एक विस्तृत वर्णन है। अर्थ सहित पढ़िए-

सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥

भावार्थ:-हे रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से-॥

भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गुह रूरे॥

लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥

भावार्थ:-निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं।

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥

तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥4॥

भावार्थ:-तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य (रूपी मेघ) की एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं (अर्थात आपके दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा सी भी झाँकी के सामने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत के अर्थात पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौंदर्य का तिरस्कार करते हैं), हे रघुनाथजी! उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिए॥

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।

मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥

भावार्थ:-आपके यश रूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुण समूह रूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी! आप उसके हृदय में बसिए॥

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥

भावार्थ:-जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं।

सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥

कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥

भावार्थ:-जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य श्री रामचन्द्रजी (आप) के चरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी (आप) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं।

चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥

मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥

भावार्थ:-तथा जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे रामजी! आप उनके मन में निवास कीजिए। जो नित्य आपके (राम नाम रूप) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार (परिकर) सहित आपकी पूजा करते हैं।

तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥

तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥

भावार्थ:-जो अनेक प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं।

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।

तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥

भावार्थ:-और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं कि श्री रामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन लोगों के मन रूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनंदित करने वाले आप दोनों बसिए॥

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥

भावार्थ:-जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए॥

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥

कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥

भावार्थ:-जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं।

तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥

जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥

भावार्थ:-और आपको छोड़कर जिनके दूसरे कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप उनके मन में बसिए। जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है।

जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥

जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥

भावार्थ:-जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं॥

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।

मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥

भावार्थ:-हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मन रूपी मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिए॥

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥

नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥

भावार्थ:-जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है॥

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥

राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

भावार्थ:-जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और राम भक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए॥

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥

सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥

भावार्थ:-जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए॥

सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥

करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥

भावार्थ:-स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारणकिए आपको ही देखता है और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए॥

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।

बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥

भावार्थ:-जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है॥

इनमें से कुछ बातें मुझे विशेष जान पड़ी है। जिसकी व्याख्या में करना चाहूँगा। राम को वे प्रिय है जिसे सभी प्रिय है। वह जो सबका हित चाहता - सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय में विश्वास रखता है। गीता में श्रीकृष्ण ने अध्याय 2 के श्लोक 56 में भी यही कहा है कि जो दुख से क्षुब्ध नहीं होता और सुख से लालाइत नहीं हो और जो आसक्ति, भय और क्रोध मुक्त है, वही स्थिर बुद्धि वाला है। सुख-दुख, प्रशंसा-गाली जिसके लिए समान अवस्थाएँ हैं, जो सोच समझकर प्रिय सत्य वचन कहता है उसका हृदय श्रीराम का निवास स्थान है।

सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं।

दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।

मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं।

इसी प्रकार गुरुवर वशिष्ठ भी भरत को निम्न उद्देश्य देते है-

सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥

सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥

भावार्थ:-सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिए, जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय भोग में ही लीन रहता है। उस राजा का सोच करना चाहिए, जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है॥

सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥

सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥

भावार्थ:-उस वैश्य का सोच करना चाहिए, जो धनवान होकर भी कंजूस है और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजी की भक्ति करने में कुशल नहीं है। उस शूद्र का सोच करना चाहिए, जो ब्राह्मणों का अपमान करने वाला, बहुत बोलने वाला, मान-बड़ाई चाहने वाला और ज्ञान का घमंड रखने वाला है॥

सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी॥

सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥

भावार्थ:-पुनः उस स्त्री का सोच करना चाहिए जो पति को छलने वाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छा चारिणी है। उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिए, जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता॥

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।

सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥

भावार्थ:-उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए, जो मोहवश कर्म मार्ग का त्याग कर देता है, उस संन्यासी का सोच करना चाहिए, जो दुनिया के प्रपंच में फँसा हुआ और ज्ञान-वैराग्य से हीन है॥

बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥

सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥

भावार्थ:-वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है, जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करने वाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई-बंधुओं के साथ विरोध रखने वाला है॥

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥

सोचनीय सबहीं बिधि सोई।

जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥

भावार्थ:-सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिए, जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है, जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता॥

वस्तुतः लेख जिस विषय पर था वह यहां समाप्त होता है। परंतु आज के विशिष्ट अवसर पर मैं इसका विस्तार विषयांतर करके करना चाहूँगा। यह पूर्ण विषयांतर भी नहीं है। राम का तो पूरा चरित्र ही पालन करने योग्य है। मैं यहाँ अयोध्याकाण्ड के प्रसंग की ही बात करता हूँ। जहाँ पूरी अयोध्या राम के युवराज अभिषेक पर हर्षित है, राम वहाँ दुखी है। अपने ही कुल की रीति को गलत बताते है। क्योंकि भाईयों में केवल उनका ही राज्याभिषेक हो रहा है। वह सोचते हैं कि वह तो पहले से ही बड़े है, पदासीन होकर और बड़े हो जाएंगे और इस प्रकार अपने भाईयों से दूर। यह तो एक अन्याय, दूसरा कि भरत भी नहीं है। यदि उनके बिना ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है तो उनके हृदय में अविश्वास का भाव न आ जाए। भरत के प्रति राम और राम के प्रति भरत का प्रेम - इनकी कहीं कोई उपमा है। राम - भरत मिलाप पर अलग ग्रंथ लिखे तो कम है। तुलसीदास कहते है कि यह प्रेम स्वयं माता सरस्वति नहीं कह सकती।

राम अपना वन गमन का आदेश सुनकर बहुत प्रसन्न है। कल्पना किजिए कि सुबह आपको पदेन होना है और कुछ ही पल पहले कपट षडयंत्र द्वारा आपको देश निकाला दे दिया जाए। हम और आप तो कंपित ही हो जाएँगे। ऐसा छली - ऐसा कपटी षडयंत्र वह भी अपनों द्वारा मनुष्य की आत्मा को झकझोर कर रख देता है। ऐसा घाव देता है कि मृत्युशैय्या तक याद रहे। कितना भी आदरनीय व्यक्ति क्यों न हो, क्षण भर में सब समाप्त हो जाता है। सम्मान का स्थान घृणा ले लेती। गले लगना, गले पड़ना मालूम होता है। यह अवसाद का कारक बन जाता है। पुनः कभी विश्वास करने की हिम्मत शेष नहीं रहती। परंतु राम ऐसे नहीं है ना। इसीलिए तो वें पुरुषोत्तम हैं। वह माता कैकेयी को धन्यवाद देते है और उनको 'जननी' बोलते है। वह इसमें अपना हित ही देख रहे है।

अयोध्याकाण्ड भरत महात्मय भी सुनाता है। सौतेले भाई हेतू सगी माँ का त्याग करते हुए माता कैकेयी को बहुत अपशब्द देते है। उनके बाँझपन की प्रार्थना करते है। यह थोड़ा अनुचित प्रतीत होता है परंतु इसे इस दृष्टिकोण से ना देखे। यह केवल उनका राम पद प्रेम है जो क्रोध स्वरूप धर कर ऐसा कहता है। वह रोष युक्त होते है तो केवल अपने भईया के लिए। ना उनका माता कैकेयी से वैर है और न ही स्त्री जाति से। राजपद पाकर भी उनके मन में लालच नहीं आता है। वह अन्याय समझ कर भूल सुधार करने राम के पास जाते हैं। अपना अधिकार और कर्तव्य समझते है तथा छल-कपट के मेघो को अपने प्रेम, आदर और न्याय भाव रूपी सूर्य से हटा देते हैं।

वस्तुतः अयोध्याधाम की ही विशेषता कुछ ऐसी है। अयोध्या समक्ष सोने की लंका का भी क्या स्थान है। अयोध्या पर आक्रमण होते रहे परंतु वह बार-बार बसी है। राम की नगरी अयोध्या अनंत है। हरि अनंत हरि कथा अनंता अयोध्या उसी कथा की रंग भूमि है। राजा दशरथ कैकेयी को सावधान करते हुए कहते है -

सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई।

सब गुन धाम राम प्रभुताई॥

भावार्थ:- (तेरी उजाड़ी हुई) यह सुंदर अयोध्या फिर भलीभाँति बसेगी और समस्त गुणों के धाम श्री राम की प्रभुता भी होगी।

आज फिर से अवसर आया है जब अयोध्या अपने राजा को आसीन होते हुए देखेगी।

अवधपुरी प्रभु आवत जानी।

भई सकल सोभा कै खानी॥

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