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Writer's pictureMrityunjay Kashyap

मानस निति कुंज - बालकाण्ड

वर्णानामर्थ संघानां रसानां छन्दसामपि ।

मंगलानां च कर्त्तारी वन्दे वाणीविनायकौ ॥

राम भारत की आत्मा हैं। राम हमारी सांस्कृतिक थाती के सुरक्षा कवच हैं। राम हमारे संस्कार रूपी मंदराचल के लिए कूर्म अवतार हैं। राम हमारे हताश उदास मन मरु पर सावन वर्षा का चमत्कारी उपकार हैं। जब राम की महिमा आदिकवि से लेकर तुलसीदास नहीं कह पाएँ तो मैं कौन आ गया। तुलसीदास तो यहाँ तक कहते हैं कि राम नाम की महिमा स्वयं राम नहीं कह सकते हैं। अतः राम का विस्तार न करके मैं श्रीरामचरितमानस की कुछ बातों का उल्लेख करने का प्रयास करुंगा। श्रीरामचरितमानस का न केवल धार्मिक महत्त्व है अपितु साहित्यिक, सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भी मानस अतुलनीय महाकाव्य है। लेख की अंग्रिम पंक्तियाँ मानस के बालकाण्ड के मंगलाचरण का प्रथम श्लोक है और उसी श्लोक के माध्यम से मैं भी माँ शारदा और गणेश जी का स्मरण करते हुए आरंभ करूंगा।

श्रीरामचरितमानस, जैसा कि तुलसीदास स्वयं निम्न पंक्तियों में बताते हैं, विविध पुराणों, वेदों, अनेकानेक रामायणों व अन्यत्र धर्म-शास्त्रों का निचोड़ है-

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्

रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा

भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति ॥

भावार्थ: अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है।

वस्तुतः श्रीरामचरितमानस में अनेकों ऐसी व्यवहारिक बातें हैं जिन्हें यदि हम अपने जीवन में अपनाएं और उनका पालन करें तो हमें बहुत लाभ होगा। मानस अत्यंत विशाल ग्रन्थ है कारणवश मैं स्वयं को इस लेख में बालकाण्ड तक ही सीमित रखूँगा। बालकाण्ड मानस का प्रथम सोपान है। यह चौपाई दोहा संख्या के अनुसार सबसे श्रेष्ठ है बालकाण्ड में वंदना, नाम-महिमा, मानस का रूप और माहात्म्य, सती की कथा, शिव पार्वती विवाह प्रसंग के पश्चात राम कथा में जन्म, बालपन होते हुए राम विवाह पर सम्पन्न होती है।

मानस के पृष्ठों को खोलते ही आप सबसे पहले वंदना पाएँगें। तुलसीदास जी का स्पष्ट संदेश है कि हर कार्य का आरंभ ईश्वर तथा गुरु की वंदना किए बिना नहीं करना चाहिए। वे ही हमारे मार्गदर्शक हैं। पूर्व उल्लेखित मंगलाचरण तथा निम्न पंक्तियों से यह स्पष्ट है-

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ॥

भावार्थ:- में गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है।

जहाँ आज के युग में लोग स्वयं में ही व्यस्त है कि उन्हें किसी का स्मरण नहीं रहता, वहाँ ये पंक्तियाँ उपयोगी है। आजकल विद्यार्थियों ने गुरुओं का जिस प्रकार आदर और अनुशासन त्याग दिया है, उसी अनुरूप उनकी प्रज्ञा शक्ति क्षीण होती जा रही है। इसी प्रकार तुलसीदास बाह्मणों तथा साधु संतो के चरणों की वंदना की बात कहते हैं।

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना ॥

सुजन समाज सकल गुन खानी करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥

भावार्थ: पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ ॥ आगें कवि कहते हैं कि

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

सतसंगत मुद मंगल मूला सोई फल सिधि सब साधन फूला ॥

भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है।

कितनी उत्तम बात है। मनुष्य जिस वातावरण में रहता है वैसा ही प्रभाव उस पर पड़ता है। जिस प्रकार पारस छू जाने से पत्थर सोना हो जाता है, ऐसा ही चरित सत्संगति का बताया गया है। अच्छे संगत में ही मनुष्य का विवेक उपजता है। जिस प्रकार अच्छे प्रकार से सना मिट्टी का बर्तन सुंदर होता है उसी प्रकार सत्संगति मन बुद्धि को निर्मल बनाती है। अतः मनुष्य को हमेशा अपनी संगत का सोच समझकर विचार करना चाहिए।

हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ।

बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं।

धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥

सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता ॥

कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है।

अचरज तो तब होता है जब तुलसीदास, दुष्टों असज्जनों को भी नमन करते हैं, प्रणाम करते है।

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ।

अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं।

ऐसा क्यों? क्योंकि तुलसीदास यह शिक्षा देना चाहतें हैं कि दूसरे चाहें आपके साथ कैसा भी आचरण करें, हमें अपने मूल्यों- संस्कारों को त्याग कर दुर्व्यवहार तथा अधर्म का मार्ग नहीं लेना चाहिए। जब दुराचारी लोग अपना आचरण नहीं त्यागतें और हमेशा दूसरों के अहित का ही विचार करते हैं तो फिर सदाचारी एवं सज्जन लोगों को भी अपनी सरलता एवं सर्व कल्याण की भावना का त्याग नहीं करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों को करने में स्वच्छंद है इसीलिए हमारे कर्म दूसरे के कर्म के उत्तर में नहीं होने चाहिए। आगे की पंक्ति से यह भाव यूँ स्पष्ट होता है-

भलो भलाइहि पै लहड़ लहड निचाइहि नीचु ।

सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु ॥

भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में ॥

आकर चारि लाख चौरासी जाति जीव जल थल नभ बासी ॥

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥

चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥

यह पंक्ति मेरी प्रियतम पंक्तियों में से एक है। यह न केवल वैज्ञानिक चेतना से युक्त है बल्कि सामाजिक परिदृश्य का महत्त्वपूर्ण गुण भी समेटे हुए है। वह गुण है समानता का, भाईचारे का तथा सबके प्रति सद्भाव का तुलसीदास कहते हैं कि वो संपूर्ण संसार को ही प्रणाम करते है। कोई भेद नहीं मनुष्य ही नहीं, बल्कि कीट-पतंगे, जलचर, थलचर या आकाश में विचरण करने वाले प्रत्येक जीव को वह प्रणाम करते हैं। क्यों? क्योंकि सबमें ईश्वर का वास है। संपूर्ण जग ही सीताराम मय है। जब सारा जग ही उनकी संतान है तो भेद कैसा सबमें ईश्वर हैं। तुलसीदास का यही भाव मुझे समझ आता है जब कोई व्यक्ति ईश्वर से इतना आसक्त हो जाए कि वह सर्वत्र ईश्वर को ही देखे तो वह प्राणियों में भेद कैसे करेगा। वस्तुतः यह विश्वास ही ईश्वर की सत्ता है। भक्त प्रह्लाद का विश्वास ही था जो खंभे से भगवान प्रकट हुए। अतः ये चौपाई अत्यंत कम शब्दों में समाज की इतनी गूढ़ बात समेटे हुए है। अगर यह भाव प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार ले तो सारी सामाजिक कुरीतियाँ समाप्त हो जाएँ कोई ईर्ष्या नहीं, द्वेष नहीं तथा कोई वैर नहीं।

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ॥

काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ ॥

भाषा भनिति भोरि मति मोरी हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी ॥

यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं ॥

अहम् का नाश करने वाली यह चौपाइयाँ तुलसीदास जी की सरलता और विनय को दर्शाती हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह कितना भी क्यों न विद्वान हो जाए, सफलता के शिखर पर हो परंतु उसमें अभिमान नहीं आना चाहिए। अभिमान उस एक मछली के समान है जो अन्य सभी गुण सागर को गंदा करने का क्षमता रखे हुए है। तुलसीदास जी का यह स्पष्ट भाव है कि कारण कर्ता से महान है। जो भी हमने पाया है वह मैं स्वयं करता तो कहा संभव था। वास्तव में तो यह ईश्वर का रचा हुआ था इसलिए साकार हो पाया।

निज कबित्त केहि लाग न नीका सरस होउ अथवा अति फीका ॥

जे पर भनिति सुनत हरषाहीं ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं।

हमें बड़ी सहजता से अपने अवगुणों को स्वीकार करना चाहिए तथा गुणों पर अभिमान न करके उन्हें ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। जैसे ही अपने कर्म प्रति कर्ता को अहंकार हुआ वैसे ही उस कर्म का नाश समझ लेना चाहिए। हर किसी को अपना कर्म दूसरों से अच्छा लगता है, यह समाज प्रकट बात है। परंतु जो लोगे दूसरों के कार्यों की प्रशंसा की करते हैं वे ही श्रेष्ठ है। समाज में ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है अन्यथा आज इतनी ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का दौर हो गया है कि हमने स्वयं का चिंतन छोड़ और कहीं देखा ही नहीं ये चौपाइयाँ अहंकार रहित तथा परोपकारी जीवनशैली की ओर स्पष्ट संकेत है।

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।

यह चौपाई महादेव तब कहते जब वे माता सती को प्रभु राम की परीक्षा लेने से नहीं रोक पाते महादेव यह कहकर संतोष करते है कि शायद ऐसी ही राम की इच्छा है। इस चौपाई का विस्तृत भाव है। सबसे पहला तो यह है कि हमें ईश्वर की सत्ता पर सदैव विश्वास रखना चाहिए वे जो भी करेंगे उसी में हमारा कल्याण निहित है, ऐसा विचार करना चाहिए। मैं इसके दो प्रमुख लाभ अपनी लघु मति से सोच पाता हूं। पहला तो अध्यात्मिक कि इससे हमारा ईश्वर तत्व से जुड़ाव बढ़ता है क्योंकि हम स्वयं को उनपे छोड़ देते हैं, आत्मसमर्पण हमारी श्रद्धा को दर्शाता है। दूसरा मनोवैज्ञानिक कारण कि हम हताश होने से बचते है। जब मनोकामना ना पूर्ण होने पर भी हम इसपर विवाद नहीं करेंगे तो यह हमारा आत्मबल बढ़ाता है। हम संतोष का गुण सीखते है। तथा विवाद के अवसाद से नहीं गुजरते और गहराई से देखा जाए तो उपर्युक्त दोनों कारण एक ही ओर समावेशित होते जाते हैं कि ईश्वर में विश्वास रखिए, सब अच्छा ही होगा हरिवंश राय बच्चन ने कुछ ऐसी ही बात कही है कि मन का हो तो अच्छा, मन का ना हो तो और भी अच्छा।


जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेंहुँ न संदेहा ॥

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥

भावार्थ: यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता ॥

माता सती के पिता दक्ष के घर बिना निमंत्रण के जाने का समर्थन नहीं करते हुए महादेव ये चौपाई कहते हैं। व्यापक अर्थ में यह चौपाई हमें अपने आत्मसम्मान के संरक्षण के लिए प्रेरित करती हैं। साथ ही अतिथि को कैसा होना चाहिए, क्या जाना चाहिए, ऐसे व्यवहारों के बारे में भी संकेत करती हैं। जहाँ जाने का निमंत्रण नहीं हो वहाँ आत्मसम्मान की भेंट चढ़ा कर गमन नहीं करना चाहिए। जहाँ जाने से लोगों को विषाद हो, लोग मन ही मन विरोध करें ऐसे आतिथ्य से बचा जाना चाहिए। दक्ष यज्ञ विध्वंस प्रकरण इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सिद्ध हुआ।

तपबल रचड प्रपंचु बिधाता । तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥

तपबल संभु करहिं संघारा । तपबल सेषु धरड़ महिभारा ॥

भावार्थ: तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही बिष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शम्भु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं।

उपर्युक्त का संदर्भ माता पार्वती का महादेव से विवाह हेतु तप करने से है। यहाँ तपबल की महिमा बतलाई गई है। मैं आज इसे कठोर परिश्रम के समतर कह सकता हूँ। परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। अधिक परिश्रम के बल से ही कार्य सिद्ध किया जा सकता है। परिश्रम से जब त्रिदेव नहीं छुटें, माँ पार्वती को तप करना पड़ा, राम ने संसार में मानवी वेष धारण कर मनुष्य सरिस अथक परिश्रम किया तो अब इससे बढ़कर क्या कहा जाए।

रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।

अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥

भावार्थ: तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य चन्द्रमा को दुःख देता है। यह बात पढ़ने में भले ही राजनैतिक प्रतीत हो, यद्यपि इसका संदर्भ भी राजा प्रतापभानु और उसके शत्रु राजा से है तथापि यह केवल वहीं तक सीमित नहीं है। तुलसीदास कहते हैं कि हमें अपने शत्रु को कभी कमतर नहीं आंकना चाहिए। परंतु क्या शत्रु हमेशा साकार रूप में हो ऐसा आवश्यक है? नहीं। हमारे मन के दुर्भाव ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं। आलस्य, क्रोध, कपट, अभिमान, ईर्ष्या, मोह, अज्ञान, आसक्ति, व्यसन जैसे न जाने कितने शत्रु हमारे भीतर ही पनपते है। हम उन्हें कुछ नहीं समझते। उनके अस्तित्व को ही नकारते रहते है। यही है शत्रु को छोटा समझना। जिस प्रकार एक धूल का कण आंखों में चला जाए तो दृश्य शक्ति क्षीर्ण हो जाती है, उसी प्रकार इन विकार रूपी शत्रुओं का अंशमात्र हमारी मन-बुद्धि के नेत्रों की रोशनी मिटा कर अंधकार कर देता है। रावण इतना विद्वान होते हुए भी राम को अपना शत्रु समझता रहा। हाय, मूर्ख शत्रु तो उसके अंदर उसका ही अहंकार था। उसने राम को नर जान कमतर समझा और अहंकार ने उसका सर्वनाश कर दिया।

कहैं कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥

रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥

भावार्थ:-कहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र ? किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। सूर्यमंडल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता है ॥

मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्व ।

महामत्त गजराज कहूँ बस कर अंकुस खर्ब ॥

भावार्थ:- जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है॥

विगत बात का विस्तार उपर्युक्त चौपाइयों तथा दोहे में सकारात्मक रूप से देखने को मिलता है। यहां किसी की भी क्षमताओं को कम आंकने से मना किया गया है। उदाहरण के लिए अगस्त मुनि जो एक छोटे से घड़े से उत्पन्न हुए थे उन्होंने संपूर्ण समुद्र को ही सोख लिया था। छोटा सा प्रतीत होने वाला सूर्य पूरे संसार को प्रकाशमान करता है मंत्र की भी शक्ति कुछ ऐसी है जो लघुतम वर्णों में परम ईश्वरीय सत्ता को अधीन करने की क्षमता लिए हुए है।

जिन्ह के रही भावना जैसी प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥

भावार्थ:- जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी ॥

यह मानस की सुविख्यात चौपाई है। अनेक अवसरों में लोग अनेक संदर्भों में इसका प्रयोग करते मिलेंगे। मानस में यह प्रभु राम के सीता स्वयंवर की धनुष यज्ञ शाला में प्रवेश करने पर विभिन्न उपस्थित लोगों के मनभावों के वर्णन में लिखी गई है। परंतु इसे इतने तक ही सीमित नहीं रख सकते। यह चौपाई विचारों की स्वच्छता और भिन्नता को दर्शाती है कि किस प्रकार एक ही विषय में जितने लोग हों उतने ही विचार और दृष्टिकोण भी रहते हैं। हम किसी विचार को सही या गलत नहीं कह सकते हैं। जिसकी जैसी भावना है व विचार शक्ति है, वह वैसी ही राय प्रकट करता है। कोई निर्गुण ब्रह्म को मानता है, तो कोई साकार मूर्ति की उपासना करता है। चोरों को चांदनी रात नहीं भाती और भक्त पूर्णिमा का व्रत करते है। सूर्य सोते हुए कमल को खिलाता है, तो सूर्योदय उलूक के लिए शयन का समय होता है। इसमें सूर्य या चंद्रमा का तो कोई दोष नहीं।

तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥

भावार्थ:- यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा? ॥

का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें ॥

भावार्थ:- सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ?

इन चौपाइयों में तुलसीदास समय के महत्त्व पर प्रकाश डाल रहे हैं। समय का जितना महत्त्व है शायद ही किसी और का होगा।बिता हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता। एक-एक पल को असंख्य धन खर्च कर भी वापस नहीं लाया जा सकता। समय सबके साथ समान है। परंतु जो समय को महत्त्व देता है उसे पछताना नहीं पड़ता। समय का चक्र तो अपने गति से चलता ही है। जो उसके साथ चल कर उसका सदुपयोग करता है, वही विवेकी है। समय के बल से उसका सदुपयोग करने वाला रंक से राजा बन जाता है। समय के महत्त्व को समझते हुए हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक काम उसके नियत समय से हो जिस प्रकार, प्यास से मृत हो चुके व्यक्ति के लिए अमृत का तालाब व्यर्थ है उसी प्रकार, कार्य का उसके नियत समानुसार नहीं करना उसकी सार्थकता को नष्ट कर देता है। समय शिष्ट आचरण का प्रिय है। फसल के सूखने के बाद वर्षा से लाभ नहीं होता।

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥

भावार्थ: शूरवीर तो युद्ध में करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।

इस दोहे के माध्यम से तुलसीदास शूरवीर योद्धाओं के लक्षण और गुण बताते हैं जो वस्तुतः वीर होता है, जिसमें वास्तव में कौशल है, वह समर भूमि से नहीं घबराता और प्रत्यक्ष कर के दिखाता है। उसे अपना बखान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अपने मुंह से अपने शौर्य का वर्णन कायर ही किया करते हैं। यही बात जीवन में अन्यत्र भी लागू होती है। वह जो चतुर है, बुद्धिमान है, उसे कहना नहीं पड़ता। उसका ज्ञान और चातुर्य प्रत्यक्ष प्रकट करता है। जिस प्रकार सूर्य को अपने उदय होने की घोषणा नहीं करनी पड़ती बल्कि प्रकृति स्वयं ही सूर्य के उदय के साथ उर्जामान हो उठती है, पशु-पक्षियों का कलरव सुनाई देता है, आकाश से तम हट कर अरुणिमा हो जाता है, उसी प्रकार दक्ष और कुशल व्यक्ति का गुणगान स्वयं उसका काम तथा अन्य ही किया करते हैं। जो बिना गुण के हैं वे गर्व के साथ अपना झुठा गुणगान करते रहते हैं थोथा चना बाजे घना और अधजल गगरी छलकत जाय जैसे मुहावरों को ये चरित्रार्थ करते हैं।

लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।

जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल ॥

भावार्थ:- लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते हैं।

इस चौपाई में क्रोध के बारे में बताया गया है कि क्रोध ही सभी पापों का कारण है। आखिर हमें क्रोध क्यों आता है। भगवान कृष्ण गीता में इसका उत्तर देते हुए कहते है कि विषयों के प्रति आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है तथा कामना के पूर्ण न होने पर क्रोध आता है। क्रोध सद्बुद्धि का नाश करने वाला हैं। बुद्धि व विवेक हीन मनुष्य का पतन निश्चित है। विभिन्न रचनाओं में क्रोध को कृसानु की उपमा दी गई है तथा दी जाती रहेगी जो मनुष्य के बुद्धि रूपी ईंधन को खर्च कर पूरे शरीर को ही जला देती है। क्रोध भ्रम उत्पन्न करता है। क्रोध अपने अभिमान की संस्तुति करता है। क्रोध से नाश ही होता है। (श्रीमद्भगवद्गीता २.६२-२.६३)

गुनह लखन कर हम पर रोषू । कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥

टेढ़ जानि सब बंद काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ॥

भावार्थ:-(श्री रामचन्द्रजी ने मन ही मन कहा-) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वंदना करते हैं, टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता ॥

जीवन में ऐसी बहुत सी परिस्थियाँ आती हैं जहाँ सीधे मार्ग पर चल कर कोई लाभ नहीं होता और हमें उस परिस्थिति अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। सीधे सरल स्वभाव के व्यक्तियों का अकसर लोग फायदा उठा लिया करते हैं तथा स्वार्थ पूरे होने पर पहचानते तक नहीं। वहीं दूसरी तरफ जो तोड़ा टेढ़ा है, जटिल है उससे लोग बचकर रहते हैं। उनसे विवाद नहीं करते हुए उनकी हाँ में हाँ मिलातें हैं। उनकी झूठी ही सही मुख पर प्रशंसा करते हैं। इसका उदाहरण तुलसीदास ने वक्र चंद्रमा के राहु द्वारा नहीं ग्रसने से दिया है। राहु पूरे सिधे चंद्रमा को पूर्णिमा की ही रात ग्रसता है, अन्यथा नहीं।

मनु मलीन तनु सुंदर कैसें । बिष रस भरा कनक घटु जैसें ॥

भावार्थ:- यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा! ॥

आपको वह कहानी तो याद होगी जिसमें हमें साँप और मनुष्य में से किसी एक से मित्रता करने का द्वंद्व दिया गया था। उसका उत्तर ही चौपाई का सार है वह प्रत्येक कपटी, छल करने वाला मनुष्य जो सामने प्रत्यक्ष तो बहुत सुंदर जान पड़ता है (देखने व बातों से) परंतु मन में कुछ और भाव लिए हुए है, उस सोने के घड़े के सामान है जिसमें विष भरा हो। मन और तन एक-दूसरे के पूरक और पोषक होने चाहिए। दोनों में विरोधाभास की स्थिति का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए। मन मलिन हो तो सुंदर शरीर किस काम का वास्तविक सुंदरता तो मन की है, तन का क्या मोल है। पाँच तत्व का बना शरीर तो नाशवान है परंतु मन के जो भाव हैं जो हमारे पाप पुण्य कर्म निश्चित करते हैं, वे रह जाएँगें तन की सुंदरता को बनाने से कोई लाभ नहीं होगा यदि हम मन को स्वच्छ न करें। मन को कैसे स्वच्छ करें ? मन को स्वच्छ करने का साधन है भक्ति। मन को मंदिर की उपमा दी गई है। इसीलिए यह निर्मल होना चाहिए। जब हमारे मन मंदिर में भक्ति विराजित होगी तो दुर्भाव, क्रोध, काम, ईर्ष्या, मद, मोह, घमंड जैसे सारे विकारों का नाश हो जाएगा।

मातु पिता गुर प्रभु के बानी बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥

भावार्थ:- माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए।

माता-पिता तथा गुरु का क्या स्थान है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। हम आज जो कोई भी है उनके ही वज़ह से हैं। तुलसीदास उपर्युक्त चौपाई में उनकी बातों को बिना विचार किए, स्वीकार करने को कहते हैं। क्या कारण है? क्या उन्होंने हमें जीवन दिया इसलिए उनका हम पर आधिपत्य है? इस कारण से बहुत से लोग संतोष मान सकते हैं परंतु मैं नहीं माँ-पिता-गुरु ने कभी हम पर अधिकार की दृष्टि से कुछ कहा ही नहीं। उनका हर वचन हमारे हित के लिए होता हैं। फिर अपने हित के विषय पर विरोध कैसे ? पर हम अपना हित स्वयं भी तो सोच सकता हैं। संभवत: हाँ। परंतु आपके पास वह एक चीज नहीं जो उनके पास है अनुभव। उन्होंने हमसे ज्यादा दुनिया को देखा समझा है। इसीलिए उनके निर्णयों में ज्यादा सोच-विचार का सार है। -

इसी के साथ में यह लेख समाप्त करूंगा। मानस के बालकाण्ड में और भी बहुत सी बातें जिनका उल्लेख में भूलवश अथवा अज्ञान से नहीं कर पाया हूं। उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ।।

विजयदशमी की अनेकानेक शुभकामनाएँ।

श्रीराम जय राम जय जय राम ।।

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