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मैं अदना सा कलमकार

मैं अदना सा कलमकार जिसकी दुनिया खुद्दारी है, 

कागज़, स्याही, कलम, सरस्वती जिसकी संपत्ति सारी है l

जिसके शब्द पोथी में कैद स्वयं चिर भयकारी है, 

लेखनी अमर काल में जिसकी उगलती चिंगारी है ll


मैं चाँद, सितारे, आकाशगंगा की बाते नहीं बताता हूँ, 

कुमकुम, बिंदिया, काजल, रोली के गीत नही मैं गाता हूँ l

सत्ता की अचल दीवारों में कैद मसनदो को नही मै भाता हू, 

घायल भारत माता रोती, उनकी चीख सुनाता हू ll


मै भूखी चीखो का सत्ता से किया हुआ आवेदन हू, 

मैं बूढ़ी हड्डियों की रुकी पेंशन का किया हुआ निवेदन हू, 

मै श्रीनगर के लाल चौक पर जलते तिरंगे की शान हू, 

मै भारतवासियो का वतन पे खोया हुआ अभिमान हू ll


मै करगिल के समर में मानिकशो की गोली हू, 

मै जनमानस प्रतिरोध में शायर दुष्यंत की बोली हू l

मै पतंजलि के योग की पावन शीतल शांति हू, 

मै 75 कि इमरजेन्सी में जयप्रकाश की क्रांति हू ll



मै 370 की आड़ में घाटी की जलती एकता हू, 

मै कावेरी के ज्वार में बटते दक्षिण को देखता हू l

मै बंगाल की सीमाओं में मरता संविधान हू, 

समाज को दर्पण दिखलाता मै प्रचंड सत्य प्रधान हू ll


मै लहू की छीटो से रंगी हुई डगर हू, 

मै चुनावी दंगो का शिकार अवनत मुजफ्फरनगर हू l

मै विरोध हू उस अंकुश का जो अभिव्यक्ति को अधीन करे, 

मै शत्रु उन हू उन सरदारों का जिनके कोषो को दीन भरे ll


मै उत्थान बन जाता जब सत्ता झुक जाएँ समर्पण मे, 

सय्यम के नाम पर कायरता दिखने लग जाए दर्पण मे l

आभास बन जाता जब खोट दिख जाए सरकारों किरदारों मे, 

सिंहो की पेशी जब होने लग जाए चूहों के दरबारो मे ll


प्रश्न चिह्न बन जाता जब घुटने टिक जाए आतंकी द्वारों के आगे, 

ऊँचे वटवृक्ष क्यों झुक जाते आखिर खरपतवारों के आगे l

सवाल बन जाता उन मिथयो पर जो छप जाते अखबारों में, 

इमारत खड़ी नहीं होती खोखले कमजोर आधारों में ll


ये चुनावी छाया कैसी है खुद्दारी के आचरणों में, 

वतन का सम्मान पड़ा क्यों चरमपंथ के चरणों में l

घाटी की सरकारे क्यों झुक जाती हिज्बुल लश्कर के आगे, 

क्यो कटते हैं यूँ बेटों के सिर शोणित पुष्कर के आगे ll


कोई बतलाए मुझे कैसे रंगो के मतलब बदल गए, 

कब ये वर्ण धर्म तस्करी के नवीन मंडल बन गए l

वीरता, पौरुष का प्रतीक केसरी कब असहिष्णु, संकी बन गया, 

और द्रुमों की हरियाली पर अंकित रंग यूही आतंकी बन गया ll


मैं उत्तर हूँ इन प्रश्नों का, समाज की ललकार हू, 

अपने क्रंदन को बस लिखते जाता एक अदना कलमकार हू ll


मैं अदना हूँ भले ही पर निष्क्रिय नहीं हू मै, 

सत्ता के सहचरों को इसलिए प्रिय नहीं हू मै, 

गर्दन पर चाहे लटके तलवारें, फिर भी गर्दन नहीं झुकेगी, 

शीश कटके अलग न हो तब तक कलम नहीं रुकेगी ll


मैं वो जो लोहा ले सत्ता के गुमान से, 

ध्यान दो कोई खेले न कलम के स्वाभिमान से l

अदना मै पर पर कलम मेरी ये भाग्य पलट फिरा देती है, 

तख्तपलट कर दे पल में, बहुमत की सरकारे गिरा देती है ll


मैं उड़ता मधुमास का पंछी, 

पिंजरे में शरण नहीं ढूँढूँगा l

मै स्वयं खुद में तेज़पुंज, 

तमलीन जगत में क्यों भटकूगा ll


मैं नहीं शिखर वार्ता कोई, ना कोई समर्पण हू, 

शिशुपालो के शीश जो काटे वो अमर सुदर्शन हू l

मैं शब्द पिरोता हूँ सहचर कविता और छंदो का, 

काल हूँ वतन में पलते कृतघ्न जयचंदो का ll


पौरुष प्रतीक सम्पूर्ण जगत के, वो अमर पांडव हूँ मैं, 

कैलाशी त्रिलोचन का प्रलयी तांडव हू मै l

महाभारत के महासमर में, पाञ्चजन्य ललकार हूँ मै, 

हुंकार हू परिवर्तन का, अदना सा कलमकार हू मै 

अदना सा कलमकार हूँ मै 

अदना सा कलमकार हूँ मैं ll


- मयंक 


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