‘मैं’ और ‘मेरा’
'मैं' और 'मेरा' की क्या परिभाषा,
मन मान मरु मही को विपासा,
चाहे चंचल चरित्र का चारू मुकुर,
या स्वार्थ क्षुधा, लगता स्वाद मधुर।
प्रधानता की स्पर्धा अथवा होड़ है,
विभीषिका व पक्षपात का जोड़ है,
जो 'मेरा' नहीं, वो प्रतिद्वंद्वी समान,
मानों अहित उसका 'मेरा' सोपान!
'मैं' अंकुर को सींचता भय बरसात,
ईर्ष्या की ताप, अहं बनता वात,
कुसंगति मेड़ हो करती रक्षण,
शंका की खाद से मिलता जीवन,
यह स्व-विनाश का वृक्ष रमणीक है,
वस्तुतः वह विनाश नज़दीक है।
जो परमार्थ के गुण - विवेक युक्त है,
मैं - मेरा के बंधन तोड़ मुक्त है,
जिसका 'मैं' लिए सबका हित सार,
उन्हें नहीं छुते कोई अन्य विकार।
वृद्धावस्था का विचार किए दिन एक,
दशरथ ने ठाना राम राज्याभिषेक।
होने लगी तैयारियाँ अनूठी चहुं ओर,
हर्षित नगर - सूर्यवंश की नव भोर!
राम को समाचार पाकर हुआ खेद-
भाईयों में यह कैसा अनुचित भेद।
खेल-कुद, समस्त संस्कार हुए संग,
उपनयन, शिक्षा और विवाह के उमंग।
फिर यह कैसी बात हुई अनय,
केवल मेरे ही अभिषेक का निश्चय।
कैसे भोगूँ राज्य छोड़ मेरे अनुज,
जैसे हो असमर्थ शरीर बिन भुज!
नहीं सिंहासन पर मेरा एकाधिकार,
फिर कैसे करूं मैं इसे स्वीकार ?
उपस्थित नहीं भरत, गए ननिहाल,
इन परिस्थिति कैसे बनूं महिपाल?
अवध में एक ओर राम का वैराग,
दूसरी तरफ मंथरा हिय लगी आग।
वह रानी कैकेयी की अतिप्रिय दासी,
मंदमति, कुबड़ी, सदा संग निवासी।
देवों का आग्रह सुनकर शारदा आई,
फेरा मति मानों साढ़े-साती छाई !
नगर का सुंदर साज शृंगार देख,
कुंठित, मस्तक पर खिंची चिंता रेख।
धाई व्याकुल हो कर कैकेयी प्रासाद,
मानों जैसे भागता आखेट, देख व्याध!
सांसें फूलती, मुख नहीं आए वाणी,
देख कंपित काया कहे कैकेयी रानी-
“कौन अनर्थ हुआ जो ऐसी दुर्दशा?
कौन विकराल भय तेरे हृदय बसा?
तेरी अवस्था ज्यों खग पंख हीन,
व्याकुल तू मानों जल बिन मीन !
आ बैठ मेरे पास करले विश्राम,
त्याग अपनी यह अवस्था वाम।”
सुनकर यें निश्चिंत स्वर कुब्जा बोली-
“रानी! विधाता ने विपत्ति पुंजी खोली,
क्यों सोती है, उठकर देख आपात,
सर्वस्व लुटा तेरा, तू निश्चिंत अज्ञात !
ज्यों ग्रीष्मकाल सूखे नदी का प्रवाह,
त्यों सौभाग्य तेरा हुआ अस्थिर, तबाह।
बड़ कपटी राजा, प्रत्यक्ष तुझे अर्पित,
पीठ-पीछे करते तेरा अनिष्ट, अहित।
मन मलिन, मुंह मिठा महिप स्वभाव!”
रानी बोली- “ बतला, मत कर दुराव,
क्यों कहती अमंगल-कठोर वचन,
यह कैसा विषाद छाया तेरे मन ? ”
कहे मंथरा प्रकट कर अपनी हितैषिता-
“विनाश होने को सौभाग्य, करो चिंता।
भूप ने कल राम राज्याभिषेक ठाना,
मुझे यह समाचार सायक समाना।
शोक व्याकुल, डुबी भय समुद्र अपार,
चिंताग्नि ग्रसित मैं सुन यह कुविचार।
रचा यह समस्त षड्यंत्र तेरे प्रतिकूल,
तुमपर आया दुख सरिस सहस्र शूल।
कुचाल कर भेजा भरत को केकय,
और चुपचाप किया राम तिलक तय।
जैसे करता शत्रु - सर्प सम आचरण,
तैसे सुअन सहित तुझे हुए राजन।
समझ मेरी गूढ़ वचनों का अभिप्राय,
महारानी! करो शीघ्र रक्षण का उपाय।”
मंथरा से सुनकर राम अभिषेक संदेश,
उदिप्त हुई मानों पूर्णिमा का राकेश।
कैकेयसुता को हुआ अति संतोष,
अतिरंक को मानों मिला कुबेर कोश!
वक्ष विस्मय विमुग्ध, विनोद विशाल,
दिया कैकेयी ने कुब्जा को कंठमाल-
“है सुनाया तूने अत्यंत प्रिय संवाद,
उपयुक्त इसके लिए न कोई आशीर्वाद,
तथापि बोल करूं क्या तुझे भेंट,
आभूषण, वस्त्र, अथवा भूमि श्रेष्ठ।
राम और भरतमें नहीं कोई विशेष,
दोनों भाईयों से मेरा समान श्लेष।
सुनकर राम अभिषेक का उत्कर्ष,
हृदय मेरे नहीं समाए आनन्द हर्ष !”
मंथरा ने फेंका अलंकार मानों फंदा
क्रुद्ध, अशुभ वचन बोली कर निंदा-
“अरी मूर्ख! हो तुम बहुत नादान,
होता हर्ष तुम्हें दुःख के स्थान !
किसके लिए तुम्हें इतना उल्लास?
महासंकट में है तेरा स्वयं वास !
दुर्बुद्धि ! होता शत्रु पुत्र सौत का,
विमाता को पाश साक्षात मौत का।
नहीं है तुझको तनिक भी विवेक,
कल जो हुआ राम राज्याभिषेक,
टूट पड़ेगा तुझपे विपत्ति का पहाड़,
रचा-बसाया तेरा संसार का बिगाड़!
राम होगा राजा, कौशल्या राजमाता,
सौतन शासन में कौन तेरा त्राता ?
होगा क्रूरतापूर्ण व्यवहार पुत्र सहित,
सभी सुख सुविधाएं से सदैव वंचित।”
कहती मंथरा प्रति कैकेयी खीझकर-
“क्यों छोभ तुझे राम तिलक दिखकर?
राजपद पर अधिकार होता ज्येष्ठ का,
कैसा षड्यंत्र इसमें रघुकुल श्रेष्ठ का ?
राम को एक सरिस समस्त अम्ब,
मैं-भरत उसको प्रिय विशिष्ट कुटुम्ब।
मत रख हृदय राम प्रति शंका,
निति निपुण, निश्छल, निश्कलंका।
मांगूँ प्रत्येक जनम पुत्र सरिस राम,
आज्ञाकारी, नय, वीर, करुणा धाम।”
"प्रिय ! सीधी-सरल तू अति रानी,
यह सब हुई बातें अब पुरानी।
पाकर शासन का असीम अधिकार,
नहीं स्मरण रहते नितिगत विचार।
फलहीन वृक्ष का ईधन बन प्रयोग,
महत्त्वहीन तन, क्षीण लगकर रोग।
पाकर निष्कण्टक अवध का राज,
कौशल्या सम्राज्ञी, तुम दास समाज।
भरत को बंदीगृह या देश निकाल,
कौशल्या-राम की दासी तू-तेरा लाल!
भूमिजा को भांति-भांति भोग विलास,
शोकाकुल बहुएँ तेरी, प्रभुत्व नाश।”
मंथरा ने कही कुटिल कपट कथा,
जिस प्रकार कैकेयी हिय बढ़े व्यथा।
“ सहज शत्रु भरत सौतेले के नाते,
जैसे दिनकर किरण को प्रतिपक्ष रातें।
तूम्हारा बालक होने का मिलेगा दंड,
अवधेश वश भोगेगा यातनाएँ प्रचंड।
सुसंस्कृत, समस्त सुख समृद्धि स्वामी,
तनय तेरा बनेगा राम चरण अनुगामी।
रहेगा कैसे जिवित पराश्रित, अति दीन,
समझों सींप सागर, सर्प सुमणि हीन।
राजा राम द्वारा तय भरत तिरस्कार,
सोच उपाय रक्षण का करों विचार।
तुमने पाया पतिका जो विशिष्ट नेह,
कारण उसके दहके कौशल्या देह।
सौत संबंध से स्थापित सुदृढ़ वैर,
लेगी बदला तुमसे, दबवाकर पैर।
रचि इसीलिए छुपकर यह कुरीत,
पलटो दांव, प्राप्त करो उसपर जीत।
अन्यथा दोहराएगा कद्रू-विनता प्रसंग,
अनुचित व्यवहार तेरे-भरत के संग,
लक्ष्मण राम का सलाहकार सहचर,
शत्रुघ्न को भरत निकटता सम सर।
भामिनी ! देखो-समझो संकट भावी,
करो प्रकट प्रश्न प्रति प्रबंध प्रभावी।
भरत बने राजा, राम पाए वनवास-
समाधान जिससे समाप्त होगा त्रास।”
कुटिल कुब्जा कैकेयी को दहकाती,
पुछे रानी- होगा यह किस भांति?
पाप दर्शिनी मंथरा बोली देते उत्तर-
“एक उपाय है बड़ा सरल उत्तम,
बल डाल याद करो देवासुर संग्राम,
किया राजा के सारथी का काम।
हुए थे जब जनेश घायल, अचेत,
कर उनका रक्षण पहुँचाया साकेत।
तुमसे प्रसन्न होकर दिया दो वरदान,
तब तुमने रखा वरदान थाती मान।
आज आया अवसर, साधो प्रयोजन,
पलट तो राज्याभिषेक का आयोजन।
मांगों स्वामी से सुंदर वरदान एक,
सिंहासन पर भरत का राज्याभिषेक।
वर दूसरा मांग करो इच्छा पूरी,
रामको अयोध्या से चौदह वर्ष दूरी।
अयोध्या में चौदह वर्ष के अंतराल,
प्रजा प्रति प्रेम प्राप्त करेंगे भूपाल।
कूभेष बना कर जा तू कोपभवन,
जब होगा महाराजा का वहाँ गवन,
राम शपथ दिला मांगना तू वरदान,
ना मानना तू पाकर प्रलोभन आन।
विगत जल नहीं निर्मित होते सेतु,
नहीं देता वृक्ष फल बिते ऋतु।
नहीं और समय, ना कर विलम्ब,
यही युक्ति तेरा अंतिम अवलम्ब।”
प्रतीति पनपा पापीनी वचनों द्वारा,
मन ही मन अति प्रसन्न दारा,
आंखों में चमक, कहे वचन वंदना,
करती कुब्जा कुबुद्धी की सराहना।
जान हितैषी उसके वचनों में आई,
'मैं' - 'मेरा' का स्वार्थ साधने धाई।
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