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व्यंजन

क्या हुआ जो मेरी इच्छाओं का सम्मान नहीं,

प्रशंसा भले नहीं, कम से कम निंदा गान सही!


क्या मेरा अस्तित्व है ? - स्वयं से यह सवाल,

नहीं, क्या मेरे न रहने से रुक जाएगा काल!


कोई क्यों समझें स्वयं को फिर अन्य से श्रेष्ठ,

कैसा द्वंद्व उत्पन्न करे, कहे कनिष्ठ और जेष्ठ !


क्यों घबराना, क्या नहीं होगी फिर भोर ?

इच्छा शक्ति से तरल होता पाषाण कठोर !


निद्रा का करो स्वीकार, चिंता को कर त्याग,

निशा की शीतल चादर को वह सरिस आग!


बिना फल के किया कर्म ही तो कर्म है,

श्रीकृष्ण का दिया गीता का यही मर्म है !


हृदय पटल में देना घांव आसान है, कर आक्षेप,

जटिलता से भेंट तब, करें पर-वेदना को संक्षेप !


यह कुछ नहीं, केवल निज स्वार्थ की सिद्धि है,

उद्यम है किसी का, किसी और की प्रसिद्धि है !


मन मुकुर में मचा मतभेद क्यों विषाद कहलाता है,

द्वंद्व दूसरों का दर्शक दृग-दृष्टि को तो बहुत भाता हैं!


जिसे मान मरहम, मर्म घांव पे लगाया है,

मानों माहुर निकला वही, ऐसा जलाया है!


मरहम हो तो तोड़ा मुझे भी देना,

पराजित कर चुकीं है आर्त सेना !


आँसू भी अब मुझसे नाराज़ जान पड़े हैं,

लगता है मुस्कान ने उसके कान भरे हैं!


तुम जाते हो, यह तो कोई अलग रीत नहीं,

पर भूलूँ कैसे, मेरे करुण हर्ष का अतीत यही !


अवलंब सबको चाहिए, मांगने में कैसा संकोच,

स्वावलंबन में अभिमान और परावलंबी पोच !


मैं मुखर होकर हर ऐसी हार करता हूँ स्वीकार,

अंत में जिसके मिले मुझे तुम्हारा शरण उपहार !


पसंद तो तुम मुझे हो ही, क्या यह पड़ेगा कहना?

क्या रतिनाथ को सुसज्जित करतें लौकिक गहना!


जो हुआ करतें थें मेरे एकांत के सहचर,

आज वही छोड़ जातें हैं, एकांत बन कर!


आवश्यकता से बढ़कर तुम मेरी रुचि हो,

क्या पता यह चयन हो स्वार्थी या शुचि हो!


हमेशा ही मांगा है, आज मांगेंगे एक बार फिर से,

गलतियांँ लाख की होंगी मैंने, मांगता माफ़ी दिल से!


बाहर क्या देखना, बारिश तो हो रही है मेरे मन में,

यादों के बादल हैं, आंसू बनीं बूंदें हैं व्यथित वन में!


परिवर्तन और परिवर्धन से यह संसार किया हुआ है अभिभूत,

कोई है इनका पक्षधर, कोई प्रचारक, विरोधियों के हम दूत!



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