संतोष
कामधेनुगुणा विद्या ह्ययकाले फलदायिनी। प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्॥
~ चाणक्य नीति
विद्या कामधेनु के गुणों वाली है। यह उपमा गूढ़ है। एक तरफ जहां कामधेनु वो गाय हैं जो हर इच्छा पूरी करने वाली है वहीं दूसरी ओर कामधेनु को प्राप्त करना अत्यंत कठिन था। समुद्र मंथन में जब देव- दानवों ने मिलकर मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को नेती बना समुद्र को मथा तब कालकूट विष के बाद जाकर कामधेनु प्रकट हुई। उसी प्रकार विद्या सभी मनोकामनाएं पूरी करने की क्षमता रखती है। परंतु उसको पाना कठिन है। संकल्प के मंदराचल को परिश्रम रूपी वासुकी नेती से मन रूपी समुद्र का मंथन करना पड़ता है। पहले तो कई ऐंद्रिक विकर्षण रूपी कालकूट प्रकट होते हैं, पर सही संगत, मित्र एवं विश्वास के महादेव के कालकूट ग्रहण करने के पश्चात विद्या-बुद्धि रूपी कामधेनु की प्राप्ति हो पाती है। एक विशिष्ट बात- कामधेनु के प्राकट्य के बाद उसी समुद्र से माता लक्ष्मी भी उत्पन्न हुई। कारणस्वरूप दोनों बहने हैं। ठीक उसी प्रकार विद्या अकेली नहीं, समृद्धि संग लाती है। आगे कहा गया है कि विद्या विदेश में मां की भांति देखरेख करती है, विपत्ति में भी साथ नहीं छोड़ती। विद्या गुप्त धन के समान है जिसे मनुष्य विपदा में उपयोग करता है।
घड़ी की सुइयों के संगम ने मिलकर दस बजने का संकेत किया। विक्रांत अपने पापा के पैर दबा रहा है रोज की सामान्य दिनचर्या है, इसमें कोई विशेषता नहीं। तिवारी जी अपने पिता के पैर दबाते हैं, अब उनका बेटा उनके दबा रहा है, इसमें उल्लेखनीय क्या है! खाना हो चुका है। सब शयन को अग्रसर हैं। तिवारी जी ने आज से तय किया है कि छोटे बेटे विराट को साथ ले सोएंगे। रात को बीच-बीच में उठाकर बाथरूम जो भेजना है। दस वर्ष का हो गया है पर अभी भी बिस्तर पर पेशाब कर दिया करता। कितना ही डाटा, समझाया पर ‘व्यसन’ नहीं छूटता। हां, हमारे यहां डाटा पहले और समझाया बाद में जाता है। पिछले हफ्ते हुए अपमान के बाद विवश होकर कठोर निर्णयों की तैयारी है। इससे बात बनी तो ठीक नहीं तो प्रयाग के होमोपैथिक डॉक्टर का सुझाव मिला था। सो भी नहीं तो आखिरी आस बालाजी से ही है। ईश्वर है या नहीं -इसका उत्तर खोजने में उम्र क्या व्यर्थ करना। पूरखे विश्वास करती आई है। आगे भी यही विचार प्रवाह होगा। संभवत यह विश्वास ही ईश्वर हो।
तिवारी जी का व्यापार अच्छा है। बहुत ना सही आज के समय में दस आदमी के संयुक्त परिवार का पालन जिस व्यापार से हो वह अच्छा है। गांव में जमीन है, फिर बहुत नहीं, पुरखों के नाम की निशानी ही सही, है तो। कहा जा सकता है लक्ष्मी से संतोष है तिवारी जी को। संतोष वह वृक्ष है इसका एक बार रोपण हो जाने पर अन्य कोई संसाधन की खोज की आवश्यकता ही नहीं होती। हां, परंतु सरस्वती से वह संतुष्ट नहीं है। विक्रांत से नहीं भी तो विराट से तो बिल्कुल नहीं। यह दूसरी समस्या है जिस पर उन्होंने कठोर निर्णय कर लिया था। परंतु प्रकट जनाया नहीं था कहीं। असल बात हुई है कि पिछले हफ्ते जब तिवारी जी अपने मित्र के विवाह में लखनऊ गए थे, तब वहां विराट के कारण उन्हें दोनों बातों पर बहुत शर्मिंदा होना पड़ा। ऐसा नहीं है कि यह पहला अवसर हो कि बात सार्वजनिक हुई थी। परंतु इस बार की छाप ज्यादा गहरी हो गई। क्योंकि अब की है प्रकट हुई थी उनके मित्र समूह में। मैत्री संबंध भी बड़ा विचित्र है। बुरी से बुरी बात भी मजाक में टाल दी जाती अथवा छोटी और सामान्य सी बातें प्रकट होने पर लज्जा का घर हो जाए।
तिवारी जी शुक्रवार को व्यापार के सिलसिले में काशी को जा रहे हैं। अक्सर जाते हैं; परंतु इस बार अलग यह है कि पत्नी को सामान बांधने को कह रहे हैं। अपना नहीं, विराट का। वह भी जाएगा। सही है दूसरा निर्णय। पर्यटन पर नहीं ले जा रहे। पत्नी के लाख पूछने पर भी भेद नहीं खोलते हैं। मां है, पता चला तो ममता की शक्ति से रोक देगी। शुक्रवार को चल दिए। ठहरने को होटल अथवा गेस्ट हाउस में रुक सकते हैं, पर ठहरे धर्मशाला में। आज की रात पहली है जब विराट रूई का मुलायम गद्दा छोड़ फर्श पर दरी बिछा सोया है। ना तो नींद आई है और ना ही पेशाब! सुबह पांच बजे तिवारी जी चल उठे। विराट की आंखें नींद को तरस रही हैं। राजा निमि के दिगंचल के माध्यम से विश्राम देने के आग्रह को तिवारी जी ने अस्वीकार कर दिया।
कड़ी धूप है। तिवारी जी बेटे संग हाट में है। जब सारा सामान खरीदा हो लिया तो मजदूर लेने की वजह खुद और विराट से उठावा रहे हैं। कोई गाड़ी भी नहीं ली। पैदल ही चल रहे हैं। हर कोई यह देख तिवारी जी पर निर्ममता का दूषन कर रहा है। पिता पर अक्सर यह आरोप लगते रहते हैं। एक पिता को, विशेषकर तिवारी जी जिन परिस्थितियों में है, निर्मम होकर कठोर निर्णय के बोझ को स्वयं उठाना ही पड़ता है। संतान के मन में चाहे इससे उनके प्रति कितना ही रोष और विद्रोह क्यों न जन्मे। यह दुविधा तो राजा दशरथ को भी झेलनी पड़ी। पिता के इस बलिदान को अक्सर यह समाज नकारता आया है। विराट पसीने से लथ-पथ है। कंठ सूख रहा है। घर के आराम आज पहली बार छूठे हैं। जब तक सुविधाएं थी, पढ़ने में रुचि नहीं आती थी। परंतु सर्वाधिक परिश्रम के समक्ष विद्यार्जन सरल और फलदायी मालूम हो रहा है। पिता के प्रति आक्रोश है।
एक सप्ताह बीत गया है। तिवारी जी अब लक्ष्मी और सरस्वती दोनों से संतुष्ट मालूम होते हैं। शाम को आते हैं तो दोनों भाइयों को पढ़ता देख जो संतुष्टि की प्राप्ति होती है, वह पुत्र के प्रेम के बलिदान रूपी घाव को भले ही भर न सके, परंतु मरहम तो लगा सकती है।
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