सहारे क्यों?
भीड़ से अलग चलने की
चुकानी एक कीमत होती हैं,
ज़माने के क़ायदे हैं ऐसे
अच्छी आदतें भी बुरी होती हैं।
याराने बनते हैं शौक़ से
हम शौक़ थोड़े अलग रखते है,
उनकी शाम बीतती हैं मदहोशी में
हम बच्चन की मधुशाला पढ़ते हैं।
तनाव हमें भी घेरता हैं
उदासीनता छा जाती हैं,
हम साहित्य रसास्वादन करते हैं
मदिरा हमें न भाती हैं।
चर्चों में हम रहते नहीं
महफिलो में अब दिखते नहीं,
जाम तो हाथ लगाते नहीं,
चाहे यार ख़फा तो ख़फा ही सही।
शामिल होने की ख़्वाहिश में
आदतें हम बिगाड़े क्यों?
नज़रिया जब अलग है अपना
रहे यारों के सहारे क्यों?
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