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सियासत की सुषमा


भारतीय राजनीति बहुत भाग्यवान रही है। शुरू से ही। इतने विविध विचारों के साथ न जाने कितने ही नेताओं और नेत्रियों ने जनमानस का साथ पाया। ।

जहाँ एक तरफ गांधी जी के अहिंसा और सत्य ने उन्हें महात्मा की पदवी दी, वहीं आज़द हिंद फौज स्थापित कर स्वतंत्रता के बदले खून का आवाह्न करने वाले सुभाष चंद्र बोस जी नेताजी कहलाए। जहाँ श्रीमति इंदिरा गांधी को 1971 की जंग में विजय दिलवाने वाले नेतृत्व के लिए Iron Lady कहा गया तो, आपातकाल के ज़ख्मों के बदले ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ की हुंकार भी सुनने मिली। जहाँ सन 1985 में इंदिरा जी की मृत्यु से संवेदना व्यक्त करते हुए जनता ने राजीव जी का 400 से ज्यादा सीटों के साथ तिलक किया, तो आने वाले दशकों में अस्थिर सरकारों के कई प्रधानमंत्रियों का दौर भी देखा। इन्हीं कालखण्डो में भारतीय राजनीति ने कई परिक्षाओं को पार किया है। वस्तुत: वह हर नेता या नेत्री सत्ता के उच्चतम गरियालों तक पहुँचा जिसने भारतीय जनमानस और उसकी विविधता में एकता को समझा। ऐसी ही एक नेत्री का आज जन्म दिन है। और यह लेख उनके प्रति छोटी-सी श्रद्धांजली – श्रीमति सुषमा स्वराज।

सुषमा जी सही मायनों में भारतीय राजनीति की सुषमा थी। फ़रवरी 1952 में पंजाब के अंबाला में जन्मी सुषमा ने एक वकील के रूप में अपने व्यवसायिक जीवन की शुरुआत की। धीरे-धीरे राजनीति से जुड़ी और फिर ऐसी जुड़ी की कई महारथ अपने नाम किए गई। तब मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में कैबिनेट मंत्री बनी, दिल्ली राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री, दूसरी महिला विदेश मंत्री आदि-आदि। तथापि सूर्य को दीये के प्रकाश में नहीं देखा जाता। परंतु मैं इन तथ्यात्मक बातों पर विस्तार न करके उनके चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालने का प्रयास मात्र करूंगा।

अंग्रेजी में कहावत है ‘Speech is the mirror of the soul’। ऐसा ही कथन संस्कृत भाषा में भी है ‘यद्भावो तद् भवति’। सुषमा स्वराज अपने वाक कौशल के लिए प्रसिद्ध थी। बड़ी ही सहजता परंतु प्रभावी ढंग से वक्तव्य करती थी। विरोधी पर भी उनका प्रहार मधु वाणी में होता। उनके प्रभावी व्याख्यानों के पीछे मैं कई पहलुओं को समझ पाता हूँ। उन्हें विभिन्न भाषाओं का न केवल ज्ञान था अपितु कब, कहाँ, किसका, कैसे प्रयोग हो- यह भी पता था।

उन्होनें संस्कृत में स्नातक किया था। संस्कृत को बढ़ावा देने और आधुनिक शिक्षा से जोड़ने कि भी वे पक्षधर थी। Swami Chandrashekhar Saraswati Eminence Award, 2017 के लिए चयनित होने के अवसर पर उन्होंने कहा-

“संस्कृत कभी जनभाषा नहीं रही – शायद इससे बड़ी अज्ञानता कि बात कोई दूसरी नहीं हो सकती। संस्कृत जनभाषा रही है। छोटे लोग अनपढ़ लोग बिना विद्यालय में गए लोग संस्कृत बोलते रहे है….. आज संस्कृत केवल कर्मकाण्ड की भाषा रह गई है। क्योंकि कल को विश्व के लोग आएँगे और कहेंगे कि Computer के लिए हमें संस्कृत के विद्वान दो, हम Talking Computer बनाना चाहते है, तो एक विडंबना खड़ी होगी कि जिसे संस्कृत आती है उसे Computer नहीं आता और जिसे computer आता है उसे संस्कृत नहीं आती।….. ये फर्ज बनता है, ये कर्तव्य बनता है कि वो ऐसे लोग पैदा करे जो संस्कृत और कम्प्यूटर दोनों के परम विद्वान बने।” उन्होंने आगे संस्कृत की महानता का बखान करते हुए कहा- “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्- ये संस्कृत जानने वाले की सोच है। संस्कृत बोलने वाला पुरी पृथ्वी को परिवार मानता है और अंग्रेजी बोलने वाला विश्व को बाज़ार मानता है। यह सोच का अंतर है क्योंकि परिवार में प्यार होता है और बाजार में व्यापार होता है।”

उन्होंने संस्कृत के श्लोकों का कई बार उल्लेख अपने तथ्यों की पुष्टि के लिए किया था। उदाहरणार्थ- “हमारे शास्त्रों में एक श्लोक है ‘अपूज्यम् यत्र पूज्यन्ते पूज्यानाम् तुव्यतिक्रमा, त्रिणी तत्र – भविष्यन्ति दुःर्भिक्षम् मरणः भयः अर्थात् जहां अपूज्य लोगों की पूजा होती है मगर पूज्यों का तिरस्कार होता है, वहां तीन चीजें घटती हैं- अकाल, मौत और भय। वहां की पूज्या उत्तराखण्ड की रक्षक देवी धारी देवी का तिरस्कार हुआ और ये तीनों चीजें वहां आ गयीं। लोग भुखमरी से भी मर रहे हैं, मौत का भी तांडव हो रहा है और भय भी वहां व्याप्त है। इसलिए मैं कहना चाहती हूं कि यह जो विकास वर्सेज विनाश का प्रश्न है, यह आज वहां मुंह बांये खड़ा है।” (04.09.2013 उत्तराखंड त्रासदी के संदर्भ में)

हिंदी भाषा में उनकी वाक्पटुता को कौन नहीं जानता। विरोधी भी उनके कौशल का दम मानते थे। उनकी भाषा शैली ही कुछ ऐसी थी। अलंकृत, मुहावरें- शायरी युक्त भाषा उनकी विशेषता था। साल 1996 में एच डी देवगौड़ा सरकार के प्रति विश्वास प्रस्ताव पर बोलते समय उन्होंने कहा- “आज से पहले इस सदन में एक दल की सरकार होती थी और बिखरा हुआ विपक्ष होता था। लेकिन आज बिखरी हुई सरकार है, और एकजुट विपक्ष है।” साल 1997 में गुजराल सरकार के विश्वास प्रस्ताव का विरोध करते हुए और प्रधानमंत्री गुजराल को सावधान और देवगौड़ा जी पर व्यंग्य करते हुए कहती है-

“दोस्तों ने दोस्ती में इस कद्र की दुश्मनी

दुश्मनों की दुश्मनी का सब गिला जाता रहा।”

विरोधियों की बातों को अपने पक्ष में.. मोड़ लेना भी उनका हिंदी भाषा पर आधिपत्य को दर्शाता है-

“….. तो नेता विपक्ष (श्रीमती सोनिया गांधी) हम पर फब्ती कसती है कि ये मुंगेरी लाल के सपने है। मैं कहना चाहूँगी कि मुंगेरी लाल हिंदुस्तान की जमीने से जुड़ा हुआ वह व्यक्ति है जो छोटा होते हुए भी बड़े सपने देखता है। मुंगेरी लाल भारतीय लोकतंत्र का प्रहरी है। मुंगेरी लाल उस चीज का प्रतीक है जहां झोंपड़ी में बैठा हुआ व्यक्ति प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब लेता है।…. अध्यक्ष महोदय, यह मुंगेरी लाल का सपना है।”

वे आगे यूपी के गर्वनर श्री विष्णुकांत शास्त्री की पंक्तियों को कहकर अपना मतव्य स्पष्ट किया-

“बड़ा काम कैसे होता है

पूछा मेरे मन ने

बड़ा लक्ष्य हो, बड़ी तपस्या

बड़ा हृदय, मृदु वाणी

किंतु अहम छोटा हो

जिससे मिलें सहज सहयोगी

दोष हमारा श्रेय राम का

यही प्रकृति का नियम है।”

25 फरवरी 2010 को महंगाई पर बोलते हुए उन्होंने कहा-

“किसी मजबूर की मजबूरियों को सोचकर देखो,

प्रेम को झोपड़ियों के बीच खोजकर देखो।

अगर इंसानियत को फिर से धरती पर बुलाते हो,

किसी रोते हुए के आंसुओं को पोछकर देखो।”

“प्रधानमंत्री जी, आपने वह त्रासदी भोगी हैं, आपने वह पीड़ा सही है और आप अपने राज में यह कर रहे हैं। आपने एक बार इस सदन में हमें सम्बोधित करते हुए एक शेर पढ़ा था, आज मैं उसी शेर को आपको मुखातिब करते हुए कहती हूं:

यह जब भी देखा है तारीख की नज़रों ने,

लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।” (27.12.2011)

23 मार्च 2011 की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के बीच की नोकझोंक भी देखने-पढ़ने लायक है-

सुषमा जी: “आप (प्रधानमंत्री) उर्दू जबान समझते हैं। बहुत अच्छी तरह से और शेरों में बहुत बड़ी ताकत होती है अपनी बात को आसानी से सहजता से कहने की आज एक शेर पूछ करके मैं आपसे जवाब पूछना चाहती हूँ-

‘न इधर उधर की तू बात कर ये बता कि काफिला क्यों लुटा ?

हमें रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।’

प्रधानमंत्री जी: “Let me say that I am no match with Shrimati Sushmaji when it comes to her oratorial skills. She thinks that she has narrated an Urdu couplet, I would also do so and say:

माना के तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं…

माना के तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं,

तू मेरा शोख तो देख, मेरा इंतजार तो देख “

सुषमा जी अन्य भाषाओं के भी उतनी सहजता से अपने भाषणों मे इस्तेमाल करती। वह यह भली-भांति समझती थी कि स्वभाषा का क्या महत्त्व होता है। उन्होंने अनेको बार संसद में विभिन्न भाषाओं में भी अपने विचारों को रखा है।

श्रीलंका के तमिल बंधुओं को दुख बाँटते 08 June 2009 कहा –

“पेरीयवर तमनोई पोल पिरर नोई कंडु उल्लम,

एरीइन इझुडू आवर एन्धा थेरी ईझाई, मंडू

पिणियाल वरूंघुम पीर उरूप्पड़ कंडु कझालुमे कण।

इसका अर्थ है कि शरीर के किसी भी भाग में अगर घाव होता है, पीड़ा होती है, तो आंसू आंख बहाती है। इसीलिए अगर मानवता के ऊपर हमारी फालो ह्यूमन बींग्स के ऊपर दुनिया में कहीं भी, भले ही सरहद पार अगर कोई आपदा आती है, कोई संकट आता है तो अच्छे लोग उसकी चिंता करते हैं।”

इसी तरह तेलंगाना राज्य की प्रखर समर्थक रहे सुषमा स्वराज ने कुछ यूं कह कर उनका साथ दिया था-

“हमें कहना चाहिए कि वे मरें नहीं, बल्कि वे तेलंगाना बनता हुआ देखने के लिए जिंदा रहें। उन लोगों का मरना देश के हित में नहीं होगा। इसलिए में केवल वहां के अपने बहन-भाइयों से एक अपील करना चाहती हूं:

‘Sodhara, Sodharimanulaara, Telangana kosam balidaanam vaddhu. Telangana Choodadaaniki Brathakaali, Brathakaali’

It means: Brothers and sisters, do not sacrifice your lives for Telangana.You should live to see Telangana.”

8 दिसंबर 2009 को प्रभु राम को भारत की आत्मा बताते हुए वे कहती हैं-

“वे भूल गए गुरुवाणी को गुरू नानकदेव ने दो ऐसे शब्द कहे हैं, जो हर हिन्दू और सिख वहां अपने-अपने घरों में बोलता है। उन्होंने कहा है, ‘संग सखा सब तजि गये, कोय न निमयों साथ कह नानक की विपति में, टेक एक रघुनाथ।’ उनका दूसरा शब्द है ‘राम नाम उर में गयो, जाके सम नहीं कोय, जे सिमरत संकट मिटे दरश तुम्हारो होय।”

उनका बेल्लारी चुनाव और एक माह के छोटे अंतराल में कन्नड़ सिखने का किस्सा भी विस्मरणीय है। उन्होंने यह समझा कि अगर उन्हें चुनाव में जीतना तो उन्हे जनमानस से जुड़ने के लिए उनकी भाषा में भाषण करना होगा। सुषमा जी के कन्नड़ में भाषण को सुनकर अटल जी भी उस वक्त काफी हैरान हुए और उन्होंने -उनकी बहुत तारीफ भी की उस चुनाव को याद करती हुई सुषमा स्वराज संसद में कहती है-

“जो कांस्टीट्यूएंसी 12 बार की आपकी जीती हुई थी, मैंने बेल्लारी न देखी न सुनी, केवल 12 दिन के लिए वहां गई थी और 3,58,000 वोट लेकर आई थी। दो कांस्टीट्यूएंसी में सोनिया जी को हराकर आई थी। तीन कांस्टीट्यूएंसी में बराबर आई थी।……अध्यक्ष जी, ये 12 बार की जीती सीट पर केवल 56 हजार वोट से जीतकर आई थी और 48 हजार इनवैलिड हुए थे यह है बेल्लारी का आंकड़ा। यह – दुखती रग मत छेड़ो बेल्लारी आपके लिए ग्लोरियस विक्ट्री नहीं है। मेरे लिए ग्लोरियस डिफीट है।

…….अध्यक्ष जी, मैं प्रियरंजन जी को बता दूं कि कभी-कभी हार विजय की अपेक्षा कहीं अधिक गौरवपूर्ण होती है। मैं हार में यह गौरव महसूस करती हूं, परन्तु श्रीमती सोनिया गांधी बेल्लारी में हुई जीत में भी इस गौरव का दावा नहीं कर सकतीं। Some defeats are more glorious than victory.”

सुषमा जी के भाषणों में दो बातें और बहुत अनूठी होती थी। पहला हास्य और दूसरा पौराणिक संदर्भों का उदाहरण। वर्ष 1997 के विश्वास मत के दौरान इस बात को बड़े ही हास्यात्मक लहजें में कहते हुए कि 11वीं लोकसभा सबसे ज्यादा संख्या में विश्वास मत लाने के लिए चर्चित होगी उन्होंने व्यंग्य कसते हुए कहा-

“वास्तव में देश का कोई पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्री पहली बार लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया है। इसीलिए इस सरकार ने विश्वास प्रस्ताव का सीरियल बनाने का फैसला किया है जिसका तीसरा एपीसोड आज हम देख रहे है।”

11 जून 2014 का भाषण से अंश-

“अध्यक्ष जी, कल खरगे जी ने बोलते हुए कहा कि कुछ नहीं है, यह तो मार्केटिंग की सफलता है। अगर किसी को सीखना है तो मार्केटिंग बी. जे. पी. से सीखे खड़गे जी मैं आप को बताना चाहती हूं। मार्केटिंग का एक बुनियादी सिद्धांत है कि प्रोडक्ट अच्छा होना चाहिए। अगर प्रोडक्ट अच्छा नहीं होगा तो मार्केटिंग हो ही नहीं सकती।… (व्यवधान) अगर प्रोडक्ट अच्छा नहीं होगा तो मार्केटिंग हो ही नहीं सकती … (व्यवधान)

मार्केटिंग की कोशिश आप ने भी की, लेकिन हमारा प्रोडक्ट जनता के मन को भा गया। इसलिए यह मार्केटिंग की सफलता नहीं, प्रोडक्ट की विशेषता है।”

“अध्यक्ष महोदय, हर व्यक्ति खड़ा हो रहा है। जो कभी नहीं बोलता, उसे भी आज ही सवाल सूझ रहा है। … जो कतई चुप रहते हैं, वे भी आज खड़े हो गये हैं। …” (19.08.2003)

सुषमा जी अक्सर अपनी बातों के समर्थन में पौराणिक तथ्य और उदाहरण देती थी अटल जी के विश्वास मत ना जीत पाने पर और त्याग पत्र देने के घटनाक्रम को उन्होंने कुछ यूं व्यक्त किया-

“…लेकिन अध्यक्ष जी, इतिहास में यह पहली बार नहीं हुआ जबकि राज्य का सही अधिकारी अपने राज्याधिकार से वंचित कर दिया गया हो। त्रेता में यही घटना राम के साथ बीती थी। राजतिलक करते-करते वनवास दे दिया गया। द्वापर में यहीं घटना धर्मराज युधिष्ठिर के साथ घटी थी। जब धूर्त शकुनी की दुष्ट चालों ने राज्य के अधिकारी को राज्य से बाहर कर दिया था। यदि एक मंथरा और शकुनी राम और युधिष्ठिर जैसे महापुरूषों को सत्ता से बाहर कर सकत हैं तो हमारे खिलाफ तो कितने ही शकुनी और मंथराये हैं, हम राज्य में कैसे बने रह सकते थे।”

इस पर अध्यक्ष महोदय के उठे- “अपने भाषण को इतना रोचक मत बनाइए।”

“रंग मंच पर खेलने वाले पात्र इस देश के वे महान राजनेता हैं जो अपने आप को इस देश के कर्णधार कहते हैं, जो अपने आप को इस देश के उज्जवल भविष्य का रक्षक कहते हैं। इन दस दिनों में ऐसा उपन्यास रचा गया जिस में हर व्यक्ति दूसरे को धोखा दे रहा था। जहां हर व्यक्ति एक-दूसरे को धोखा दे रहा है। जहां बेवफाई की कलम से ऐसी कलयुगी रामायण रची गई थी। जहां लक्ष्मण ने ही राम का राज लपक लिया। यह रामायण केवल यहां रची गई।” (1997)

2014 में राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते समय उन्होंने कहा-

“मैं आपके माध्यम से बताना चाहूंगी कि महाभारत का एक प्रसंग है कि जब युद्ध समाप्त हुआ तो धर्मराज युधिष्ठिर भीष्म पितामह के पास पहुंचे। वे सरों की शैय्या पर लेटे थे। उन्होंने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और कहा पितमह आप हमें – सफल शासन के सूत्र बताइए। पितामह ने पहला सूत्र बताया कि सुनो युधिष्ठिर, कभी अतीत को कोस – कर अपनी जिम्मेदारी से बरी मत होना। अगर अतीत अच्छा होता तो लोग उसे बदलते ही क्यों लेकिन अतीत की गलतियों से सबक लेते हुए, उन्हें सुधार कर आगे बढ़ना।”

सुषमा जी का स्वभाव विपक्ष में रहते हुए भी सबके लिए अनुकूल होता था। उन्होंने कभी किसी से मनभेद नहीं किया। दूसरे दल के नेताओं को स्नेह और आदर दिया तो अपने पक्ष के लोगों को टोका भी। संसद की तेज-तर्रार तकरार के बाद सेंट्रल हॉल के बटर-टोस्ट-कॉफी और गपशप पर वे अपनी राजनैतिक विरोधियों को मोह कर मित्रों में तब्दील करने वाली थी। (उनकी पुत्री बांसुरी जी के शब्द)

‘मुलायम भाई’, ‘मेरे अत्यंत स्नेही भाई लालू यादव’, ‘प्रणब दा’, ‘माननीय शरद भाऊ,… वे चीनी साम्राज्य के मालिक हैं, वे देश के चीनी सम्राट हैं।’ जैसे संबोधन तो प्रायः थे। कुछ विशिष्ट उदाहरण-

“डा. गिरिजा जी से मेरे स्नेहिल संबंध हैं और मैं उनकी योग्यता का बहुत सम्मान करती हूँ पर पता नहीं, उस दिन वह कुछ नाराज दिखीं नाराज थीं या मजबूरी थी. यह वह स्वयं जानती है। मैं गिरिजा जी से इतना ही कहना चाहती हूं कि शपथ समारोह के दिन मेरी आखें टी.वी. पर राष्ट्रपति भवन में उन्हें खोज रही थी परन्तु वह दिखाई नहीं दीं। इससे मुझे दुख भी हुआ मगर वहां का गुस्सा हम पर क्यों निकाला ?” (08.06.2009)

“दादा (सोमनाथ चटर्जी), आप माफ कीजिए, आपका बोलना जरूरी नहीं है क्योंकि वह आपकी शैली से मेल नहीं खाता है। आप गाली भी देते हैं तो मीठी देते हैं। आप पहले अफैक्शनेट, अफिशिएंट कहते हैं फिर एंग्री कहते हैं। जब तक आदमी पहले दोनों वर्सन्स को सुनता है तब तक एंग्री वैसे ही खत्म हो जाता है, गुस्सा रहता नहीं है। आपकी शैली अलग है। जहां तक आपका प्रश्न है आप बड़े स्नेह से अच्छी तरह से बोलते हैं…” (19.08.2003)

“पश्चिमी बंगाल के जन्मे एन.सी. चटर्जी अपने बेटे का नाम सोमनाथ रखते हैं। यही एक संस्कृति है”

“हां, पवन भाई को देखकर मुझे याद आया, पवन भाई और मैं एक ही डिपार्टमैंट से पढ़े हैं, लेकिन वे एक साल मेरे सीनियर थे। वे उम्र में शायद मुझसे तीन साल बड़े हैं। तेरह साल पहले मेरी पार्टी ने मुझे कैबिनेट का मंत्री बना दिया था और तेरह साल बाद इनकी पार्टी को इनकी याद आयी है और वह भी सीजनल मिनिस्ट्री देकर रूक गये हैं। चार महीने काम करेंगे और आठ महीने खाली बैठेंगे। प्रणब दा, कम से कम एक और महकमा तो साथ में दिलवा दीजिए कि बारह महीने मेरा भाई काम कर सके। वह बहुत योग्य है, वह डिपार्टमैंट ही बहुत योग्य लोगों को निकालता है। कम से कम बारह महीने का मंत्रिमंडल तो इनका मिलता। आप इन्हें ऐसा मंत्रालय दीजिए जिससे ये बारह महीने काम कर सके।”

” चिदंबरम जी का गृह मंत्री के नाते हमारा विरोध होगा, पर वे एक नामी-गिरामी वकील हैं, इसमें तो कोई संदेह नहीं है। I acknowledge him as an eminent lawyer. कपिल सिब्बल जी बैठे हैं, होगा राजनैतिक विरोध हमारा इनके बिल राज्य सभा में रूक जाते होंगे, लेकिन वह संविधान के विशेषज्ञ हैं, इसमें तो कोई दो राय नहीं है, सलमान खुर्शीद जी बैठे हैं, पवन बंसल जी बैठे हैं और प्रणव दा चाहे लॉयर न हों, लेकिन उनको संसद का इतना अनुभव है, वे इतने अनुभवी सांसद हैं” (27.12.2011)

वर्ष 2003 का अटल सरकार के विरोध में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए-

“मैं अपने लोगों से कहूंगी कि वे पीछे से ना खड़े हो मैं निपटने के लिए काफी हूं।”

वर्ष 2014 अपने पक्ष को-

“प्लीज आप लोग चुप रहिए। आप लोग क्यों बोलते हैं?”

“मैं अपने विपक्ष के साथियों से कहना चाहूंगी कि यह उनकी अपनी मानसिकता दर्शाता है इसीलिए आप चुप रहे।”(08.06.2009)

“मैं अपनी तरफ के तमाम साथियों से भी कहना चाहता हूँ कि हो सकता है कि मेरी कोई बात उन्हें नागवार गुजरे जिसके कारण वे थोड़ा उत्तेजित होने लगें तो भी आप शांति बनाए रखें। मैं आपसे भी यह कहना चाहती हूँ कि अगर मेरी कोई बात पसंद न आए तो आपके वक्ता जो बोलने वाले हैं, वे उसका जवाब दें, जितनी मर्जी आक्रामक भाषा में जवाब दें, लेकिन कम से कम आज इस देश को दिखा दें कि आपने इस संसद के व्यवधानों को तो देखा है, लेकन यह संसद इतनी शांति और संजीदगी से भी चर्चा कर सकती है, यह भी आज देखे।”(27.12.2011)

वर्ष 2013 में अपनी पार्टी में किसी महिला को महामंत्री नहीं बनाए जाने पर वे कहती हैं-

“इस बार मेरा उनसे (राजनाथ जी) झगड़ा हुआ कि 13 महिलाएं तो उन्होंने रखीं, वो कम कर ही नहीं सकते। लेकिन महामंत्री के नाम पर कन्नी काट गए।…आप 9 के 9 पुरुष बना रहे हैं। मैंने कहा देखिए मैं इसको डिफेंड नहीं कर पाऊंगी।… झगड़ा करुंगी आपसे।… इस कि आप असहमति नोट कर लीजिए।”

सुषमा स्वराज का व्यक्तित्व सच में उल्लेखनीय था। उन्हें याद करते हुए राजनाथ जी ने कहा “वे जन की नेता नहीं थी, जन-मन की नेता थी।” यह सच भी है। विदेश मंत्रालय जैसे मंत्रालय जिससे आम जनता की ज्यादा पहुँच नहीं होती था, उसे उन्होंने जनता तक पहुँचाया। विश्व भर के हिंदुस्तानिओं के लिए विदेश मंत्रालय के दरवाजे खोल दिए। ट्विटर पर वे स्वयं सक्रिय रहकर लोगों की शिकायत का निवारण करती थी।

श्रीमती सुषमा स्वराज 8 जून 2009 को कहती हैं-

“उपाध्यक्ष जी, मैं डा. गिरिजा जी को बताना चाहती हूं कि लोकतंत्र में चुनाव जीते जाते हैं, हारे जाते हैं, यह लोकतंत्र की बुनियाद का नियम है लेकिन यहां किसी की इतिश्री नहीं होती है न पार्टी स्तर पर और न व्यक्तिगत स्तर पर…

उपाध्यक्ष जी, वास्तव में डा. गिरिजा व्यास साहित्यकार हैं और साहित्य में हर कहानी की इतिश्री होती है, और हर उपन्यास की इतिश्री होती है लेकिन में राजनेत्री डा. गिरिजा व्यास को बताना चाहूंगी कि राजनीति साहित्य नहीं होती राजनीति में चुनाव लड़े जाते हैं। किसी लड़ाई की इतिश्री तब होती है जब सामने लड़ने वाला मैदान छोड़ दे लेकिन हम मैदान छोड़कर नहीं भाग रहे हैं, हम मैदान में डटे हुये हैं और इसी पराजय में से हम विजय की राह निकालेंगे, आज मैं इसका ऐलान करती हूँ।”

सुषमा जी ने ठीक ही कहा कि साहित्य में ही इतिश्री होती है राजनीति में नहीं। इसीलिए यह लेख मैं समाप्त नहीं कर रहा हूं क्योंकि पार्थिव शरीर का अंत भले ही हो गया हो परंतु उनके विचारों की, उनके व्यक्तित्व से मिलने वाली प्रेरणा की, ममता की, सौहार्द की इतिश्री नहीं हुई हो सकती।

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