top of page
  • LinkedIn
  • Facebook
  • Instagram

हमारा संविधान - एक परिचय

किसी भी देश के लिए, किसी भी काल एवं परिस्थिति में यह अत्यावश्यक है कि उसकी राजनीतिक व्यवस्था का एक बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित हो। यह आज के कालखंड में संविधान द्वारा निर्धारित किया जाता है। संविधान राज्य के प्रमुख अंगों, उनके अधिकारों, शक्तियों एवं कर्तव्यों का निर्धारण और परिसीमन करता है। साथ ही उनके पारस्परिक संबंधों को उनके दायित्व में समायोजित कर जनता के प्रति उनकी जवाबदेही भी तय करता है। वह राज्य के नागरिकों एवं गैर-नागरिकों को परिभाषित कर उनके भिन्न कर्तव्यों और अधिकारों का व्याख्यान भी करता है। संविधान देश की आधारविधि है जो उसकी व्यवस्था के मूल सिद्धांत को विहित किए हुए हैं। अतः संविधान का एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए उसकी जनता के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रकृति के अनुरूप होना, उसकी लोकप्रियता एवं सर्वमान्यता के लिए न केवल ऐच्छिक है अपितु अपरिहार्य भी। उपर्युक्त से यह अनुमानित कर लेना ठीक ही होगा कि संविधान कोई जड़ दस्तावेज नहीं बल्कि जीवंत है, जो व्यतीत होते समय के साथ-साथ निरंतर पनपता है, पल्लवित होता है।

6 दिसंबर 1946: देश को पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ स्वतंत्र होने में लगभग 7 माह शेष है। कैबिनेट मिशन की योजना अनुसार अविभाजित भारत की संविधान सभा चयनित एवं गठित की जा चुकी है। वयस्क मताधिकार द्वारा चुनने पर बहुत विलंब हो जाता इसीलिए सभा को परोक्ष रूप से प्रांतीय विधानसभा द्वारा चुना गया। सभा की कुल सदस्य संख्या 389 थी, जिसमें 292 प्रतिनिधि ब्रिटिश प्रांतों से, 93 भारतीय रियासतों से एवं चार चीफ कमिश्नरी प्रांतों- दिल्ली, अजमेर-मारवाड़, कुर्ग एवं बलूचिस्तान से थे। कांग्रेस -208 और मुस्लिम लीग-73 सीट पर विजयी हुई। परंतु चुनाव बाद मुस्लिम लीग ने द्विराष्ट्र की मांग करते हुए संविधान सभा का बहिष्कार कर दिया। स्वतंत्र भारत में संविधान सभा की संख्या घटकर 299 रह गई।

संविधान सभा पहली बार सिमित संख्या बल में ही सही 9 दिसंबर 1946 को संविधान कक्ष (आज के संसद का केंद्रीय कक्ष) में मिली। फ्रान्सी प्रथा के अनुरूप डॉ सच्चिदानंद सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया। बाद में डॉ राजेंद्र प्रसाद को सभा का अध्यक्ष चुना गया। साथ ही सर बेनेगल नर्सिंग राव को संविधानिक सलाहकार नियुक्त किया गया जिन्होंने संविधान का कच्चा प्रारूप तैयार करने का काम दिया गया था। राव ने ही विभिन्न देशो के संविधान का अध्ययन कर एक प्रारूप तैयार किया जिसपे पहले प्रारूप समिति और फिर संविधान सभा ने चर्चा की।राव आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष बने। वे 1952-53 में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे। सर बी एन राव का भारतीय संविधान के निर्माण में योगदान अविस्मरणीय है। 13 दिसंबर को पंडित नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया , जो संविधान के अंतर्निहित सिद्धांतो होने थे। बाद में इसका परिवर्द्धितित रूप ही भारतीय संविधान की प्रस्तावना बना। यह 22 जनवरी 1947 को सर्वसहमति से पास हुआ। संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिनो की समयावधि में संविधान को तैयार किया। आज के ही दिन अर्थात 26 नवंबर को 1949 में संविधान को 395 अनुच्छेदों , 8 अनुसूचियों और 22 भागों में पारित और अपनाया गया। 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा की आखिरी बैठक हुई। डॉ राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति चुने गए, ‘जन गण मन’ को राष्ट्रीय गान और ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया। अंततः सभी सदस्यों ने संविधान की प्रतियों पर हस्ताक्षर किये। संविधान पूर्ण रूप से 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ तथा डॉ राजेंद्र प्रसाद के चयनित राष्ट्राध्यक्ष बनते ही भारत गणतंत्र बन गया। 26 नवंबर संविधान दिवस और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

भारतीय संविधान अपने आप में बहुत उत्कृष्ट और व्यापक कानूनन दस्तावेज़ है। यह दुनिया में किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र का सबसे बड़ा संविधान है। सर बी एन राव ने संविधान का मसौदा तैयार करने में अपने शोध के दौरान विभिन्न देशों जैसे अमेरिका , कनाडा ,ब्रिटेन आदि की यात्रा की। यह संविधान न तो एकात्मक(Unitary) है और न ही परीसंघीय(Federal)। इसे अर्धपरिसंघीय(Quasi-Federal) कहा गया है- इसकी संरचना परिसंघीय परन्तु भावना एकात्मक है उद्धारण के लिए कहा जाए तो सामान्य स्थिति में यह परिसंघीय होता है पर आपातकाल (अनुच्छेद 352 ,356 या 360) में पूर्णतया एकात्मक हो जाता है। इसी प्रकार कई मामलो में संसद की शक्तियां राज्यों की विधानसभा से बहुत अधिक है(अनुच्छेद 254)। राज्यों में राज्यपाल की केंद्र द्वारा नियुक्ति की जाना भी यही दर्शाता है (अनुच्छेद 155)। अनुच्छेद 256 के अंदर केंद्र राज्य को संसद द्वारा पारित विधियों के क्रियान्वयन के जरूरी निर्देश दे सकता है।संविधान राज्यों को कही विषयों में एकाधिकार देता है नामक सातवीं अनुसूची की राज्य सूची। यह संविधान न तो ये संसदीय सर्वोच्चता देता है और न ही न्यायिक। संसद को जहाँ संविधान के अधिकाँश भागों में संसोधन करने तथा कुछ प्रतिबधो में रहकर व्यापक विषयो पर विधि निर्माण का अधिकार है, वहीं न्यायालय संसद या विधानसभा द्वारा बनाये कानून को संविधान विरुद्ध बता कर अवैद घोसित कर सकती है। पुनः संसद संविधानिक संसोधन से न्यायलय का निर्णय पलट सकती है या फिर न्यायादीश के खिलाफ महाभियोग चला कर उसे अपदस्त भी कर सकती है(अनुच्छेद 124 (4))। संविधान ही सबसे सर्वोच्च है।यह ना तो पूरी तरह अनम्य(Rigid) है न ही नम्य (Flexible) . इसे संसोधित करना बहुत सरल नहीं है। अनुच्छेद 2 और 3 के तहत नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना संसद से सामान्य बहुमत से ही हो जाता है। ज्यादातर संसोधनों को संसद के प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्‍या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना होता है(अनुच्छेद 368 (2))। कुछ संसोधनों के लिए उपर्युक्त के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों के विधान-मंडलों द्वारा पारित करना होता है। तथापि इसका अबतक 105 बार संसोधन हुआ है। अनेको खूबियों के साथ साथ इसमें यह बात भी विशेष है की यह पहला संविधान था जिसने स्वतंत्र होते ही सभी वयस्कों को मताधिकार दिया(अनुच्छेद 325-326)।

जहां 70 सालों में कितने ही देशों को न जाने कितने संविधान बनाने पड़े , भारतीय संविधान आज भी सार्थक, सिद्ध और सफल है। हमारा संविधान अपनी अनूठी संरचना से यह उपलब्धि पा सका है। संविधान की मूल भावना भी इसका कारण है जैसा की प्रस्तावना से विदित है।सम्प्रभुत्व , समाजवाद , पंतनिर्पेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज की स्थापना के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता और बंधुता को यह संविधान सुनिश्चित करता है। ढ़ेर सारी उपलब्धियों के साथ साथ कई चुनौतियाँ भी हैं- साम्प्रदायिक हिंसा , भाषायी एवं प्रांतीय आंदोलन , चुनावों में बाहुबल और धनबल का बढ़ता प्रभाव , राजनितिक अस्थिरता आदि। जैसा की प्रारूपण समिति के अध्यक्ष डॉ आंबेडकर का 25 नवंबर 1949 का कथन विख्यात है की -

कोई संविधान कितना ही अच्छा क्यों न हो, उसका बुरा होना तय है यदि जिनको इसे चलाने के लिए बुलाया जाता है, वे बहुत बुरे हो तो। कोई संविधान कितना ही बुरा क्यों न हो, यदि उसे चलाने वाले बहुत अच्छे हों तो वह अच्छा हो सकता है। संविधान की कार्यप्रणाली पूरी तरह से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती है। संविधान केवल राज्य के अंगों जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका प्रदान कर सकता है। जिन कारकों पर राज्य के उन अंगों का कार्य निर्भर करता है, वे हैं लोग और वे राजनीतिक दल जो उनकी इच्छाओं और उनकी राजनीति को पूरा करने के लिए उनके उपकरण के रूप में स्थापित होंगे। कौन कह सकता है कि भारत के लोग और उनके उद्देश्य कैसे हैं या वे उन्हें प्राप्त करने के क्या क्रांतिकारी तरीकों को पसंद करेंगे?

Comments


CATEGORIES

Posts Archive

Tags

HAVE YOU MISSED ANYTHING LATELY?
LET US KNOW

Thanks for submitting!

 © BLACK AND WHITE IS WHAT YOU SEE

bottom of page